जंगल में मंगल रचाने की प्रेरक मुहिम
जंगल तो आपने बहुत देखे होंगे, एक खास तरह की प्रजाति के वृक्षों के
या फिर बेतरतीब उगे वृक्षों से भरे बीहड़ वन।
लेकिन उत्तराखण्ड के कोटमल्ला, रुद्रप्रयाग
में स्थित जंगलीजी का मिश्रित वन इनसे हटकर जंगल की एक अलग ही दुनिया है, जहां लगभग साठ किस्म के डेढ़ लाख वृक्ष
लगभग चार हैक्टेयर भूमि में
फैले हैं। यह सब जंगलीजी के पिछले लगभग चालीस वर्षों से चल रहे भगीरथी प्रयास का फल है। चार दशक पूर्व बंजर
भूमि का टुकड़ा आज मिश्रित वन की एक ऐसी
अनुपम मिसाल बनकर सामने खड़ा है, जिसमें
आज के पर्यावरण संकट से जुड़े तमाम
सवालों के जवाब निहित हैं।
यहां पर हर ऊंचाई के वृक्ष उगाए जा रहे हैं। जिन्हें सीधे धूप की जरूरत होती है, वे भी हैं, इनकी छाया में पनप रहे छायादार पेड़ भी। और जमीं की गोद में या जमीं के अंदर पनपने वाले पौधे भी इस वन में शुमार हैं। इनमें 25 प्रकार की सदाबहार झाड़ियां व पेड़, 25 प्रकार की जड़ी-बूटियां व अन्य कैश क्रोप्स हैं। मिश्रित वन के इस प्रयोग ने जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार कर रखा है कि यहां 4500 फीट की ऊंचाई पर 7000 से 9000 फीट व इससे भी अधिक ऊंचाई वाले उच्च हिमालयन पौधे बखूबी पनप रहे हैं। बांज, काफल, देवदार से लेकर रिंगाल व रखाल (टेक्सस बटाटा) के पौधों को यहां विकसित होते देखा जा सकता है।
यहां ऐसी तमाम तरह की पौध व जड़ी-बूटियां उगाई जा रही हैं, जो आर्थिक स्वावलम्बन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। छोटी इलायची, बड़ी इलाचयी, चाय पत्ती, तेज पत्र जैसे उपयोगी मसाले व उत्पाद यहां बड़े वृक्षों की छाया तले पनप रहे हैं। जमीं पर हल्दी, अदरक जैसी नकदी फसलें क्विंटलों की तादाद में तैयार हो रही हैं, जो विशुद्ध रूप में ऑर्गेनिक होने की वजह से मार्केट में खासा दाम रखती हैं।
वन में स्टोन व वुड टेक्नोलॉजी के माध्यम से हवा में टंगे पत्थरों एवं बांस के पोले डंडों में मिट्टी व काई जमाकर तथा इन पर फर्न व ऑर्किड जैसे पौधों को हवा में उगाकर माइक्रो-क्लाइमेट तैयार किया जा रहा है। इनसे जो नमी व ठंडक पैदा होती है, इसे हवा के झौंके पूरे वायुमंडल में बिखेरते हैं। आश्चर्य नहीं कि मई-जून माह की यहां का हरा-भरा शांत एवं शीतल वातावरण प्रकृति प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।
पशु-पक्षी इस वन के सूक्ष्म परिवेश की शांति व सकारात्मक ऊर्जा को अनुभव करते हैं और अपने रहने के लिए अनुकूल परिवेश पाते हैं। यहां डेढ़ सौ से अधिक पक्षियों का बसेरा है। फरवरी-मार्च माह में इनकी संख्या में विशेष इजाफा रहता है, जब दूरदराज से माइग्रेटरी पक्षी यहां आते हैं। जंगलीजी के पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर सुपुत्र देव राघवेंद्र इस दौरान पक्षी प्रेमियों के लिए वर्ड वाचिंग व फोटोग्राफी के सत्र भी चलाते हैं। यहां पधारे अनुभवीजनों का कहना है कि यहां के वन की नीरव शांति में स्वच्छंद भाव में विचरण कर रहे पक्षियों की मस्ती भरी चहचहाहट व कीट-पतंगों की झिंगुरी तान के बीच आंख बंद कर कुछ मिनटों का ध्यान किसी नाद योग से कम नहीं लगता।
जंगली जानवर भी यहां आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से वन के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों का बाड़ा लगाया गया है, जिसके कारण एक ओर वन्य जमीन का भू-अपरदन व स्खलन नहीं होता, साथ ही जंगली जानवरों से फसलों के अनावश्यक नुकसान से वचाव होता है। जंगलीजी का मानना है कि जितना अधिक हम वनों में फलदार वृक्ष लगाएंगे, उतने ही वन्यजीव वहां रहेंगे व मानवीय बस्तियों में अनावश्यक हस्तक्षेप की घटनाओं में कमी आएगी।
पहाड़ों में गर्मी के मौसम में आग की जो ज्वलंत समस्या हर वर्ष विकराल रूप ले रही है, इस त्रासदी का भी मिश्रित वन एक प्रभावी समाधान है। इसी मिश्रित वन के समानान्तर यहां सड़क के ऊपर वन विभाग का चीड़ का जंगल है, जो भू-अपरदन की समस्या से ग्रस्त है और गर्मी के मौसम में कब एक चिंगारी इस जंगल में दावानल का रूप ले ले, कुछ कह नहीं सकते। वहीं, सड़क के नीचे जंगलीजी का मिश्रित वन अपनी हरियाली व नमी के चलते ऐसी सम्भावनाओं से दूर है। जंगलीजी के अनुसार जब तक हमारी जैव-विविधता सुरक्षित व संरक्षित नहीं होगी, तब तक हिमालय और गंगा को बचाने की बातें दूर की कौड़ी बनी रहेंगी और जैव-विविधता का पुख्ता आधार मिश्रित वन ही हैं।
इस मिश्रित वन का एक महत्वपूर्ण वाइ-प्रोडक्ट है वन के बीच फूट रहा जल स्रोत्र, जिसका जल इतना स्वादिष्ट व शीतल है कि मिनरल वाटर इसके सामने फीका है। दशकों के पुरुषार्थ से पनपे इस जल स्रोत का जल अमृत-सा प्रतीत होता है। आज जब पहाड़ों में सूखते जलस्रोतों की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, ऐसे में यह प्रयोग प्रत्यक्ष समाधान है, जिसका एक ही संदेश है उपयुक्त वृक्षों का अधिक से अधिक रोपण किया जाए। जल स्रोत व मिश्रित वन के रहते आज गांव की महिलाओं को पशुओं के लिए चारे व पानी के लिए दूरदराज के जंगलों में भटकना नहीं पड़ता।
1974 में जब बीएसएफ का एक जवान जगत सिंह चौधरी रुद्रप्रयाग स्थित कोटमल्ला गांव में अपने घर आया और गांव की महिला को घास व पानी के लिए जंगल में भटकते और पहाड़ से गिरकर चोटिल होते पाया तो युवा हृदय संवेदित व आंदोलित हो उठा था कि इस समस्या का कोई हल ढूंढ़ना है। यहीं से गांव की बंजर भूमि में पौधरोपण का क्रम शुरू होता है। 1980 में पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर जगत सिंह पूरी तरह से इस कार्य में जुट जाते हैं। शुरू में गांववासियों को जगत सिंह का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन दशकों के श्रम के बाद जब जंगल हरी घास व वृक्षों के साथ लहलहाने लगा तो गांववासियों की धारणा बदलने लगी। पहली बार 1993 में जब किसी पत्रकार की नजर जगत सिंह के जंगल पर पड़ती है तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।
बंजर भूमि में पनपते हरे-भरे वन को देखकर गांववासियों को जंगली होने का महत्व समझ आया और जंगली नाम से इन्हें पुरस्कृत किया। आज जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान हैै। पर्यावरण के क्षेत्र में अपने योगदान के चलते जंगलीजी आज उत्तराखण्ड के ग्रीन अम्बेसडर हैं, पर्यावरण से जुड़े तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। पुरस्कार से प्राप्त राशि को जंगलीजी स्थानीय युवाओं को इसमें नियोजन करते हुए वन के विकास में लगा रहे हैं। उत्तराखण्ड सहित पड़ोसी पहाड़ी राज्यों व देश के विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रयोग को आजमाया जा रहा है। इनके पुत्र देव राघवेंद्र पिता के कार्य़ को वैज्ञानिक आधार पर आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।
इसी सप्ताह उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलीजी को अपने वन विभाग का ब्रांड अम्बेसडर नियुक्त किया है, जिनके मार्गदर्शन में उत्तराखण्ड के हर जिले में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाएगा।
पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए धन व साधन कैसे जुटते हैं, जंगलीजी का सरल-सा जवाब रहता है–प्रकृति से जुड़कर नि:स्वार्थ भाव से कार्य करो, बाकी प्रकृति पर छोड़ दो। नि:संदेह रूप में ऐसे संवेदनशील हृदयों से ही आज की पर्यावरणजनित समस्याओं के समाधान फूटने हैं, क्योंकि प्रकृति को अनुभव किए बिना पर्यावरण संरक्षण की बातें अधूरी रहेंगी। ऐसे में हम जड़ों का उपचार किए बिना महज पत्तियों व टहनियों को सींचने की कवायद कर रहे होंगे। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 9 जूलाई,2018 को प्रकाशित)
यहां पर हर ऊंचाई के वृक्ष उगाए जा रहे हैं। जिन्हें सीधे धूप की जरूरत होती है, वे भी हैं, इनकी छाया में पनप रहे छायादार पेड़ भी। और जमीं की गोद में या जमीं के अंदर पनपने वाले पौधे भी इस वन में शुमार हैं। इनमें 25 प्रकार की सदाबहार झाड़ियां व पेड़, 25 प्रकार की जड़ी-बूटियां व अन्य कैश क्रोप्स हैं। मिश्रित वन के इस प्रयोग ने जंगल में ऐसा वायुमंडल तैयार कर रखा है कि यहां 4500 फीट की ऊंचाई पर 7000 से 9000 फीट व इससे भी अधिक ऊंचाई वाले उच्च हिमालयन पौधे बखूबी पनप रहे हैं। बांज, काफल, देवदार से लेकर रिंगाल व रखाल (टेक्सस बटाटा) के पौधों को यहां विकसित होते देखा जा सकता है।
यहां ऐसी तमाम तरह की पौध व जड़ी-बूटियां उगाई जा रही हैं, जो आर्थिक स्वावलम्बन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। छोटी इलायची, बड़ी इलाचयी, चाय पत्ती, तेज पत्र जैसे उपयोगी मसाले व उत्पाद यहां बड़े वृक्षों की छाया तले पनप रहे हैं। जमीं पर हल्दी, अदरक जैसी नकदी फसलें क्विंटलों की तादाद में तैयार हो रही हैं, जो विशुद्ध रूप में ऑर्गेनिक होने की वजह से मार्केट में खासा दाम रखती हैं।
वन में स्टोन व वुड टेक्नोलॉजी के माध्यम से हवा में टंगे पत्थरों एवं बांस के पोले डंडों में मिट्टी व काई जमाकर तथा इन पर फर्न व ऑर्किड जैसे पौधों को हवा में उगाकर माइक्रो-क्लाइमेट तैयार किया जा रहा है। इनसे जो नमी व ठंडक पैदा होती है, इसे हवा के झौंके पूरे वायुमंडल में बिखेरते हैं। आश्चर्य नहीं कि मई-जून माह की यहां का हरा-भरा शांत एवं शीतल वातावरण प्रकृति प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है।
पशु-पक्षी इस वन के सूक्ष्म परिवेश की शांति व सकारात्मक ऊर्जा को अनुभव करते हैं और अपने रहने के लिए अनुकूल परिवेश पाते हैं। यहां डेढ़ सौ से अधिक पक्षियों का बसेरा है। फरवरी-मार्च माह में इनकी संख्या में विशेष इजाफा रहता है, जब दूरदराज से माइग्रेटरी पक्षी यहां आते हैं। जंगलीजी के पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर सुपुत्र देव राघवेंद्र इस दौरान पक्षी प्रेमियों के लिए वर्ड वाचिंग व फोटोग्राफी के सत्र भी चलाते हैं। यहां पधारे अनुभवीजनों का कहना है कि यहां के वन की नीरव शांति में स्वच्छंद भाव में विचरण कर रहे पक्षियों की मस्ती भरी चहचहाहट व कीट-पतंगों की झिंगुरी तान के बीच आंख बंद कर कुछ मिनटों का ध्यान किसी नाद योग से कम नहीं लगता।
जंगली जानवर भी यहां आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से वन के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों का बाड़ा लगाया गया है, जिसके कारण एक ओर वन्य जमीन का भू-अपरदन व स्खलन नहीं होता, साथ ही जंगली जानवरों से फसलों के अनावश्यक नुकसान से वचाव होता है। जंगलीजी का मानना है कि जितना अधिक हम वनों में फलदार वृक्ष लगाएंगे, उतने ही वन्यजीव वहां रहेंगे व मानवीय बस्तियों में अनावश्यक हस्तक्षेप की घटनाओं में कमी आएगी।
पहाड़ों में गर्मी के मौसम में आग की जो ज्वलंत समस्या हर वर्ष विकराल रूप ले रही है, इस त्रासदी का भी मिश्रित वन एक प्रभावी समाधान है। इसी मिश्रित वन के समानान्तर यहां सड़क के ऊपर वन विभाग का चीड़ का जंगल है, जो भू-अपरदन की समस्या से ग्रस्त है और गर्मी के मौसम में कब एक चिंगारी इस जंगल में दावानल का रूप ले ले, कुछ कह नहीं सकते। वहीं, सड़क के नीचे जंगलीजी का मिश्रित वन अपनी हरियाली व नमी के चलते ऐसी सम्भावनाओं से दूर है। जंगलीजी के अनुसार जब तक हमारी जैव-विविधता सुरक्षित व संरक्षित नहीं होगी, तब तक हिमालय और गंगा को बचाने की बातें दूर की कौड़ी बनी रहेंगी और जैव-विविधता का पुख्ता आधार मिश्रित वन ही हैं।
इस मिश्रित वन का एक महत्वपूर्ण वाइ-प्रोडक्ट है वन के बीच फूट रहा जल स्रोत्र, जिसका जल इतना स्वादिष्ट व शीतल है कि मिनरल वाटर इसके सामने फीका है। दशकों के पुरुषार्थ से पनपे इस जल स्रोत का जल अमृत-सा प्रतीत होता है। आज जब पहाड़ों में सूखते जलस्रोतों की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, ऐसे में यह प्रयोग प्रत्यक्ष समाधान है, जिसका एक ही संदेश है उपयुक्त वृक्षों का अधिक से अधिक रोपण किया जाए। जल स्रोत व मिश्रित वन के रहते आज गांव की महिलाओं को पशुओं के लिए चारे व पानी के लिए दूरदराज के जंगलों में भटकना नहीं पड़ता।
1974 में जब बीएसएफ का एक जवान जगत सिंह चौधरी रुद्रप्रयाग स्थित कोटमल्ला गांव में अपने घर आया और गांव की महिला को घास व पानी के लिए जंगल में भटकते और पहाड़ से गिरकर चोटिल होते पाया तो युवा हृदय संवेदित व आंदोलित हो उठा था कि इस समस्या का कोई हल ढूंढ़ना है। यहीं से गांव की बंजर भूमि में पौधरोपण का क्रम शुरू होता है। 1980 में पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर जगत सिंह पूरी तरह से इस कार्य में जुट जाते हैं। शुरू में गांववासियों को जगत सिंह का यह जुनून पागलपन लगा, लेकिन दशकों के श्रम के बाद जब जंगल हरी घास व वृक्षों के साथ लहलहाने लगा तो गांववासियों की धारणा बदलने लगी। पहली बार 1993 में जब किसी पत्रकार की नजर जगत सिंह के जंगल पर पड़ती है तो यह प्रयोग अखबार की सुर्खी बनता है।
बंजर भूमि में पनपते हरे-भरे वन को देखकर गांववासियों को जंगली होने का महत्व समझ आया और जंगली नाम से इन्हें पुरस्कृत किया। आज जंगली उपनाम जगत सिंह चौधरी की पहचान हैै। पर्यावरण के क्षेत्र में अपने योगदान के चलते जंगलीजी आज उत्तराखण्ड के ग्रीन अम्बेसडर हैं, पर्यावरण से जुड़े तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं। पुरस्कार से प्राप्त राशि को जंगलीजी स्थानीय युवाओं को इसमें नियोजन करते हुए वन के विकास में लगा रहे हैं। उत्तराखण्ड सहित पड़ोसी पहाड़ी राज्यों व देश के विभिन्न क्षेत्रों में इनके प्रयोग को आजमाया जा रहा है। इनके पुत्र देव राघवेंद्र पिता के कार्य़ को वैज्ञानिक आधार पर आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।
इसी सप्ताह उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलीजी को अपने वन विभाग का ब्रांड अम्बेसडर नियुक्त किया है, जिनके मार्गदर्शन में उत्तराखण्ड के हर जिले में मिश्रित वन का एक-एक मॉडल वन तैयार किया जाएगा।
पूछने पर कि ऐसे प्रयोग के लिए धन व साधन कैसे जुटते हैं, जंगलीजी का सरल-सा जवाब रहता है–प्रकृति से जुड़कर नि:स्वार्थ भाव से कार्य करो, बाकी प्रकृति पर छोड़ दो। नि:संदेह रूप में ऐसे संवेदनशील हृदयों से ही आज की पर्यावरणजनित समस्याओं के समाधान फूटने हैं, क्योंकि प्रकृति को अनुभव किए बिना पर्यावरण संरक्षण की बातें अधूरी रहेंगी। ऐसे में हम जड़ों का उपचार किए बिना महज पत्तियों व टहनियों को सींचने की कवायद कर रहे होंगे। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 9 जूलाई,2018 को प्रकाशित)
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