अब मैदानी इलाकों में सेब की महक
लेकिन हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिला के पनियाला गांव के प्रयोगधर्मी किसान हरिमन शर्मा ने अपनी सूझबूझ से सेब की एक ऐसी वैरायटी तैयार की है, जो गर्म मैदानी इलाकों में भी उम्दा सेब की फसल दे रही है। 1800 फीट पर बसी इनकी नर्सरी देशभर के किसानों के लिए आकर्षण का केंद्र बन चुकी है, जिसके चलते गर्म मैदानी इलाकों में भी सेब उत्पादन की संभावनाएं साकार हो रही हैं। हिमाचल के बिलासपुर, कांगड़ा, हमीरपुर, ऊना, सोलन, मंडी जैसे जिलों में उसके सफल प्रयोग बगीचों का रूप ले चुके हैं। यहां के लगभग 6000 किसानों तक हरमन सेब पहुंच चुका है। इसी तरह देश के 15 प्रांतों में किसानों ने इसकी फसल लेना शुरू कर दी है और देश के शेष प्रांतों में इसके ट्रायल चल रहे हैं। भारत के बाहर जर्मनी तक इस सेब की धमक पहुंच चुकी है और वहां यह फल दे रहा है।
सेब मूलतः सर्द इलाकों का फल है। मध्य एशिया के कजाकिस्तान को इसका मूल उद्भव माना जाता है। यहां से इसका प्रसार यूरोप व अमेरिका के ठंडे क्षेत्रों में होता है। भारत में इसको लाने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। सबसे पहले कैप्टन ली ने शौकिया तौर पर कुल्लू स्थित बंदरोल गांव में इसका बाग लगाया था। इसी तरह के प्रयोग मसूरी, ऊटी आदि हिल स्टेशनों पर हुए। व्यावसायिक तौर पर उसको प्रचलित करने का श्रेय अमेरिकन मिशनरी सत्यानंद स्टोक्स को जाता है, जिन्होंने इसकी शुरुआत शिमला के कोटगढ़ स्थान से की। आज भारत में मूलतः कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड सेब के प्रमुख उत्पादक प्रांत हैं। पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत के ठंडे इलाकों में भी यह उगाया जा रहा है।
5500 से लेकर 6500 फुट की ऊंचाई वाले इलाके इसके लिए आदर्श माने जाते हैं। इसके उत्पादन में चिलिंग ऑवर का निर्णायक महत्व रहता है। सेब की बेहतरीन फसल के लिए औसतन 1200 घंटों के चिलिंग ऑवर की जरूरत रहती है। चिलिंग ऑवर का अर्थ हाड़ कंपाती ठंड से है, जिसमें तापमान शून्य के आसपास रहता है।
लेकिन एचआरएमएन 1999 वैरायटी ने इतने चिलिंग ऑवर की आवश्यकता को समाप्तप्राय कर दिया है, जिस कारण सेब उत्पादन का सपना गर्म मैदानी इलाकों के लिए एक हकीकत बनता जा रहा है। इसके तीन साल के पौधे में फल उगने शुरू हो जाते हैं और सात-आठ साल का पौधा पूरी तरह से विकसित हो जाता है तथा एक क्विंटल तक सेब देने लगता है।
मार्केट के हिसाब से भी यह सेब विशेष महत्व रखता है। परम्परागत क्षेत्र का सेब जुलाई से सितम्बर तक तैयार होता है, जबकि हरमन वैरायटी का सेब जून में तैयार हो जाता है। उस समय बाजार में कहीं भी सेब का फल नहीं मिलता, जिस कारण यह बहुत अच्छे दामों में बिकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, भारत के ट्रोपिक्ल और सबट्रोपिक्ल गर्म मौसम में उगायी जा सकने वाली सेब की यह वैरायटी देश के छोटे व सीमान्त किसानों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। इसका रंग पीला व लालिमा लिए है, स्वाद में कुछ खट्टा व अधिक मीठा है। इसका आकार औसत साइज का है।
हरिमन शर्मा की इस उपलब्धि की पृष्ठभूमि किसी दन्तकथा जैसी रोचक है। 15 साल के युवक हरिमन के अभाव व संघर्ष का अनुमान यहां से लगाया जा सकता है कि उसे परिवार के पालन-पोषण के लिए दसवीं की पढ़ाई छोड़नी पड़ी और वन विभाग में दिहाड़ी मजदूर का काम करना पड़ा। एक दशक की मजदूरी के बाद अगला दशक सड़क में पत्थर तोड़ने जैसे काम करते हुए बीता। हाथ में चोट लगने व बढ़ते परिवार की जरूरतों को पूरा करने की मजबूरी के चलते इन्हें बंजर पड़ी पुश्तैनी जमीन पर नकदी फसल व फल उगाने के लिए विवश होना पड़ता है।
जमीन की सिंचाई के लिए वर्षा जल संग्रहण का एक बड़ा टैंक बनाते हैं। कृषि विभाग के सहयोग से हिमाचल का पहला पॉलीहॉउस 1992 में यहां तैयार होता है। इस तरह हरिमन का कैश क्रॉप्स के उत्पादन का प्रयोग शुरू होता है और यहां की नर्सरी से तैयार पनीरी पौध को घर-घर जाकर बेचते हैं। इसी बीच इनके खेत में एक बीघा में 42 हजार रुपए के टमाटर का रिकॉर्ड उत्पादन क्षेत्र में चर्चा का विषय बन जाता है।
हरिमन शर्मा के अनुसार इनके इलाके में 1992 में कोहरा कुछ इस कदर पड़ा कि इलाके में आम की सारी फसल चौपट हो गयी। उनके मन में विचार कौंधा कि क्यों न यहां सेब को विकल्प के रूप में तैयार किया जाए। बाजार से सेब खरीद कर इसका बीज प्रयोग के तौर पर जमीन में बो दिया। इससे पौध तैयार होती है, दो वर्ष बाद फल दिखते हैं जो आकार में बहुत छोटे थे। इसकी पौध को हरिमन पलम की पौध पर लगाते हैं, जिससे फल के आकार व स्वाद में आशातीत सुधार होता है। इसके बाद वे शिमला से सेब की पौध लाकर इस पर ग्राफ्टिंग कर फल तैयार करते हैं। इसके रंग, आकार, स्वाद व गुणवत्ता को देखकर वैज्ञानिक भी चकित हो जाते हैं और इसे एक क्रांतिकारी प्रयोग मानते हुए हरिमन शर्मा के नाम से एचआरएमएन 1999 नाम देते हैं।
वर्ष 2006 में गर्म जलवायु वाले इलाकों में इसका ट्रायल होता है। जब कर्नाटक, पंजाब और हरियाणा में उनके ट्रायल सफल रहे तो इसके बाद साइंस एंड टेक्नोलाॅजी विभाग की नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के सहयोग से पूरे देश के 29 प्रांतों में इसके ट्रायल शुरू होते हैं, जिसके तहत देश भर में लगभग 2.25 लाख पौधे लगाए गए हैं, जिनमें से 15 राज्यों में इस किस्म के पौधे भरपूर फसल दे रहे हैं। दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में 2014-15 में 50 पेड़ लगाए गए, जो आज फल दे रहे हैं। वर्ष 2018-19 का लक्ष्य 35,000 ग्राफ्टिंग पौधे देश भर के 29 राज्यों में लगवाने का है।
इस क्रांतिकारी प्रयोग के लिए हरिमन शर्मा को राष्ट्रपति पुरस्कार सहित तमाम राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं। प्रांतीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट फार्मर के कई पुरस्कार उनकी झोली में हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार जो काम कभी अमेरिकन मिशनरी सत्यानंद स्टोक्स ने ठंडे इलाकों के लिए सेब की व्यावसायिक खेती की संभावनाओं को खोलकर किया था, कुछ वैसा ही काम हरिमन शर्मा ने देश भर के गर्म इलाकों के लिए किया है। जिसकी गूंज देश के बाहर विदेशों में भी पहुंच चुकी है। (दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 1अक्टूबर, 2018 को प्रकाशित)
Bahut accha concept hai Sir
जवाब देंहटाएंDhanyabad Anand Kumarji, try to apply in your area.
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