गढ़वाल हिमालय के सबसे ऊँचे शक्तिपीठ के दिव्य प्राँगण में
माँ सुरकुडा देवी शक्तिपीठ का भव्य प्रांगण |
कद्दुखाल
से सुरकुंडा देवी तक 3 किमी का ट्रेकिंग मार्ग है, जहाँ हमें 8000 फीट से लगभग 10000 फीट
ऊँचाई तक का आरोहण करना था। पूरा रास्ता पक्का, पर्याप्त
चौड़ा और सीढ़ीदार है, प्रायः हल्की चढ़ाई लिए समतल, लेकिन
बीच-बीच में खड़ी चढ़ाई भी है। जो चल नहीं सकते, उनके
लिए घोड़े-खच्चरों की भी व्यवस्था है, लेकिन
हमारे दल में कोई ऐसा नहीं था जिसे इनकी जरुरत पड़ती। पहाड़ को चढ़ने का सबका
उत्साह और जोश देखते ही बन रहा था। अगले ही कुछ मिनटों में दल का बड़ा हिस्सा
दृष्टि से औझल हो चुका था, कुछ ही पथिक साथ में बचे थे।
सुरकुण्डा हिल के चरणों से आगे बढ़ता काफिला |
लगभग
आधा पौन घंटे की चढ़ाई के बाद दम फूल रहा था, सो
यहाँ एक बड़े से बुराँश पेड़ की छाया तले रेलिंग के सहारे खड़े हो गए, कुछ
दम लिए,
जल
के दो घूंट से सूखे गले को तर किए और फिर आगे चल दिए। इन विशिष्ट पलों को यादगार
के रुप में कैमरे में केप्चर किए।
प्यासे कंठ को तर करता पथिक |
इस
रास्ते की खासियत ये बुराँश के पेड़ भी हैं, जो पर्याप्त मात्रा में लगे हैं।
गुच्छों में लगी लम्बी हरि पत्तियाँ इनकी पहचान है। अप्रैल-मई माह में इनमें सुर्ख
लाल रंग के फूल लगते हैं, जिनसे तैयार किया गया जूस औषधीय गुणों से भरपूर रहता है,
विशेषरुप से ह्दय के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी।
राह में बुराँश के पेड़ |
इसी
रास्ते में खट्टे-मीठे जंगली फलों की झाडियां भरपूर मात्रा में लगी हैं, बल्कि बीच
में तो सड़क इन्हीं से घिरी हुई दिखीं। इनमें कांटेदार पत्तों बाली दारू
हल्दी(शाम्भल), आंछा आदि विशेषरुप में दिखी। कुछ नए पौधे व झाड़ियां भी थीं। लगा, इनके जानकार किसी जड़ी-बूटी
विशेषज्ञ के साथ इस इलाके की यात्रा यहाँ की दुर्लभ वनस्पतियों पर रोचक प्रकाश डाल सकती है।
शॉर्टकट को आजमाता काफिला |
काफिले
के साथ बीच में मुख्य मार्ग से हटकर हमनें कुछ चढ़ाईदार शॉर्टकट्स भी मारे, जिसकी
राह में वाचा घास के दर्शन हुए। इसको देखते ही जैसे बचपन आंखों के सामने
तैर उठा,
जब
हमारे नानाजी अपने कपड़े की थैली से लोहे की कमानी निकालकर चकमक पत्थर पर चोट
मारते और इसकी चिंगारी वाचा घास को सुलगा देती, जिसे
चिल्म की तम्बाकू पर रखकर आग सुलगते हुए उनकी चिल्म तैयार हो जाती। तब नानाजी यह
घास स्थानीय जंगलों से लाते थे। यहाँ यह अग्नि प्रज्जवल्क घास हमें प्रचुर मात्रा
में ढलानों में उगी दिखी। लगा नहीं कि यहाँ कोई इसके इस गुण, धर्म
व प्रयोग से परिचित है, क्योंकि यह निर्बाध रुप से ढलानों पर
फैली थी।
जंगली बाचा घास |
रास्ते में
चाय-नाश्ते आदि की व्यवस्था ढाबों में थी, लेकिन आज समय अभाव के चलते
यहाँ रुकने की गुंजाइश नहीं थी। बाकि, साथ में रखी पानी की बोटल से काम चल रहा था। जहाँ थक
जाते दो पल दम भरते और आगे चल देते। रास्ते में हमें हर उमर के सैलानी, तीर्थयात्री मिले, जिनमें बच्चे, बुढ़े, जवान, कप्पल, स्टुडेंट व प्रौढ़
शामिल थे। सबसे आश्चर्य नन्हें बच्चों को पैदल ट्रैकिंग करते हुए देखकर हुआ, जिनमें एक-ड़ेढ़ साल
से लेकर 3 साल तक के बच्चे दिखे। इनको देखते ही मन रोमाँचित हो उठता, इनके जीवट को सलाम
करते हुए इनसे हेंडशैक करते, इनको टॉफियाँ देते और लगता कि येही दुर्गम शिखरों पर शौर्य एवं जीवट का झंड़ा फहराने वाले भावी कर्णधार हैं।
यायावरी और तीर्थाटन का उज्जवल भविष्य |
मंजिल
के लगभग अंतिम शॉर्टकट के दौरान रास्ते में हमें हेलीकॉप्टर के दर्शन हुए, जो
घाटी में हमसे काफी नीचे उड़ रहे थे। अहसास हुआ, जिन
हेलीकॉप्टर को हम मैदान में नीचे से निहारते हैं, आज
वो हमसे कितना नीचे हैं और जैसे वो हमको निहार रहे हों। लगा, यह ऊँचाईयों के साथ दोस्ती
का परिणाम था। जितना हम ऊँचाईयों का संग-साथ करते हैं, उतना
ही निचाईयां पीछे छूटती जाती हैं और अनायास ही हम ऊच्चता एवं महानता के संवाहक बन
जाते हैं।
मंजिल के समीप और नीचे घाटी का विहंगम दृश्य |
लेकिन
अपनी उच्चता का मुगालता पालने की भी जरुरत नहीं। प्रभु की सृष्टि में हर इंसान व
प्राणी अपनी मौलिक विशेषता के बावजूद अधूरा है और सबको मिलकर ही सर्वसमर्थ पूर्ण
सत्ता बनती है। इन्हीं क्षणों में टीम के जागरुक सदस्यों ने
सर पर काफी ऊँचाईयों में मंडराते हुए ड्रोन कैमरे की ओर ईशारा किया। लगा सब प्रभु
की माया है, हेलीकोप्टर नीचे और ड्रोन कैमरा हमारे
ऊपर,
हम
बीच में कहीं। काहे का तथाकथित महानता का मुगालता-काहे का दंभ, काहे
की तुलना और काहे का कटाक्ष। हम तो माता के दर्शन के लिए निकले थे, मंजिल
पास थी,
सो
उस पर ध्यान केंद्रित कर सामने खड़ी मंजिल की ओर बढ़ चले।
मंजिल की पहली झलक - माँ सुरकण्डा परिसर |
हम उस बिंदु पर थे, जहाँ से उड़न खटोले
का काम चल रहा था। अगले कुछ ही महीनों में इसके तैयार होने के आसार हैं। कमजोर, बुजुर्ग और
बीमार लोगों के लिए यह सुविधा वरदान सावित होने वाली है, जो पैदल चलकर या
खच्चरों पर बैठकर यहाँ तक नहीं आ सकते। साथ ही यह भी लगा कि इस सुविधा के चलते कई
स्वस्थ-सक्षम किंतु आरामतलब लोग इस राह के रोमाँच व सुंदर नजारों से बंचित रह
जाएंगे।
घाटी का विहंगम दृश्य और नीचे कद्दुखाल स्टॉप |
सुरकुंडा देवी के दिव्य प्रांगण में
जुत्ताघर में जुता
उताकर हम मंदिर के पावन परिसर में प्रवेश किए। आगे पहुँचे हुए सदस्य सब इधऱ-उधर तितर-बितर
हो चुके थे। हम मंदिर की परिक्रमा कर मंदिर में प्रवेश किए, माता का दर्शन किए, आशीर्वाद लिए और बाहर
मंदिर के पीछे एक कौने पर आसन जमाकर बैठ गए। सामने बर्फ से ढकी हिमालय की
विराट ध्वल श्रृंखलाएं अपने दिव्य वैभव के साथ अटल तपस्वी जैसी खड़ीं थी,
उस
ओर मुंह कर कुछ पल चिंतन-मनन व ध्यान के विताए।
हमारे विचार से सुरकुंडा शक्तिपीठ से हिमालय का पावन सान्निध्य इस स्थल को विशिष्ट बनाता है। यहाँ विताए कुछ पल बैट्री चार्ज जैसा अनुभव रहते हैं।
हमारे विचार से सुरकुंडा शक्तिपीठ से हिमालय का पावन सान्निध्य इस स्थल को विशिष्ट बनाता है। यहाँ विताए कुछ पल बैट्री चार्ज जैसा अनुभव रहते हैं।
मंदिर परिसर से सुदूर गढ़वाल हिमालय पर्वत श्रृंखला के दिव्य दर्शन |
काफिले का फोटो और
सेल्फी अभियान जारी था। आग्रह पर हम भी बीच में शामिल हो गए और अंत में सबको बटोरकर
एक ग्रुफ फोटो के बाद भगवती को अपना भाव निवेदन करते हुए बापिस चल दिए।
छात्र-छात्राओं के संग शिक्षकगण - यादगार पल |
ज्ञातव्य
हो कि सुरकुंडा माता वह शक्तिपीठ है,
जहाँ सती माता का सर व कंठ बाला हिस्सा गिरा था, इसलिए
इसका नाम सरकंठ पड़ा, जो क्रमशः बदलते-बदलते सुरकुंडा हो गया। यहाँ नवरात्रियों व
ज्येष्ठ माह के गंगा दशहरा के दौरान विशेष भीड़ रहती है। आज यहाँ भीड़ उतनी अधिक
नहीं थी।
मंदिर परिसर में हनुमान, शिव-परिवार सहित अन्य देवी-देवताओं के विग्रह स्थापित हैं, जो हिमालय की पृष्ठभूमि में विशिष्ट भाव जगाते हैं।
मंदिर परिसर में हनुमान, शिव-परिवार सहित अन्य देवी-देवताओं के विग्रह स्थापित हैं, जो हिमालय की पृष्ठभूमि में विशिष्ट भाव जगाते हैं।
हिमालय अधिपति शिव-शक्ति |
मंदिर
का नवनिर्माण पिछले ही वर्षों हुआ है, जो एक विशेष शैली में है। इस शैली का मंदिर
हम पहली वार देखे। यह इस
क्षेत्र के सबसे ऊँचे शिखर पर स्थापित है, जहाँ
से देहरादून, ऋषिकेश, प्रतापनगर एवं चकराता साइड के सुंदर दृश्यों को निहारा जा सकता है।
मौसम साफ होने पर कुंजादेवी, चंद्रबदनी
सहित केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री क्षेत्र की समस्त चोटियों के
दर्शन किए जा सकते हैं।
हिमालय कुछ कह रहा है... |
सामने बर्फ से ढकी सफेद चोटियों के दर्शंन तो हमें भी हो रहे थे, लेकिन ये कौन सी चोटियां हैं, बताने वाला यहाँ भी कोई नहीं मिला, सो इस अनुतरित प्रश्न के साथ हम बापिस चल पड़े।
बापसी का रास्ता
बापिसी में घाटी के विहंगम दर्शन |
इस जिज्ञासा के साथ
हम बापिस कद्दुखाल तक नीचे उतरे। उतरने में अधिक समय नहीं लगा। चढ़ाई जहाँ लगभग 2
घंटे में तय हुई थी,
उतराई
महज पौने घंटे में पूरी हो गयी। उतराई में हम अघोषित नियमानुसर सबसे आगे थे।
रास्ते में बुराँश के पेड़ हमें विशेष रुप में प्रभावित करते रहे, लगा कि अप्रैल-मई में
फूलने पर इनके सुर्ख लाल फूलों से गुलजार इनके जंगल कितने सुंदर लगते होंगे।
देहरादून साइड की खुबसूरत वादियाँ |
जहाँ थोड़ा दम भरना
होता, वहाँ खड़ा होकर नीचे
की घाटी के विहंगम दृश्य को निहारते, जो स्वयं में अद्भुत, मनोरम एवं बेजोड़ हैं। लगता इन्हें निहारते हुए यहीं ठहर जाएं, लेकिन समय की सीमा इसकी इजाजत नहीं दे रही थी।
पूरा काफिला धीरे-धीरे उस बिंदु तक आ रहा था, जहाँ से ट्रेक शुरु हुआ था। यहाँ भूखे खच्चर सड़क किनारे घास चर रहे थे।
पैदल ट्रेकिंग मार्ग और घास चरते घोड़े |
नीचे कद्दुखाल उतरकर
पूरे समूह ने भोजन किया। महज 60 रुपए में पूरी थाली और गर्मागर्म रोटियाँ। भूख
लगने पर भोजन का आनन्द कई गुणा बढ़ गया था। बाहर छत से नीचे घाटी का नजारा देखने
लायक था। यहाँ तेज हवा चल रही थी, ठंड़ काफी बढ़ चुकी थी, बंद पड़े स्वाटर-जैकेट अब काम आ रहे थे। साथ में दूसरे
पाठयक्रमों के बच्चों के साथ धीरे-धीरे जान-पहचान हो रही थी और इनकी बालसुलभ
जिज्ञासाओं का समाधान करते-करते एक आत्मीयतापूर्ण भाव स्थापित हो चुका था तथा कुछ
नाम याद भी हो गए थे। पूरे ग्रुप का अनुशासन व सहयोग काबिले तारीफ रहा। पूरा ट्रिप
एक यादगार सफर के रुप में कई सुखद अनुभवों के साथ स्मृतिपटल पर अंकित रहेगा।
ढलती
शाम और अंधेरे में बापसी का सफर
कद्दुखाल -धनोल्टी - मसूरी सड़क |
शाम को साढ़े चार तक
हम कद्दुखाल से चल चुके थे। ढलती शाम के साथ सफर आगे बढ़ रहा था। रास्ते में अँधेरा
हावी हो चुका था। रात को सेलुपानी स्थान पर बस चाय के लिए रुकी। आधी सवारियाँ दिन
भर की ट्रेकिंग से थकी निद्रादेवी की गोद में थीं। आगे रास्ते में कब हेंवल नदी
पार हो गयी और आगराखाल पहुँचे, पता ही नहीं चला। अंधेरा होने के कारण बापसी में
कुंजापुरी के दर्शन अब संभव नहीं थे।
ऋषिकेश - रात के अंधेरे में टिमटिमाता शहर |
यहाँ से नीचे डोईबाला
और ऋषिकेश साइड के मैदानी इलाकों की शहरी रोशनियाँ ऐसे जगमगा रहीं थीं, जैसे कि दिपावली का
नजारा हो। जब हम नरेंद्रनगर से नीचे उतर रहे थे, तो नीचे देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे
आसमान के तारे जमीं पर उतर आए हों।
रात के अंधियारे में टिमटिमाता ऋषिकेश |
शहर के रोशन नजारे को निहारते हुए हम क्रमशः 8
बजे तक ऋषिकेश पहुँचे और अगले आधे घंटे में देसंविवि के गेट पर थे। इस तरह पूरे 12
घंटे में हम सुरकुंडा देवी का यह यादगार सफर पूरा कर रहे थे।
पहली बार दिन के
उजाले में तय किया गया यह रास्ता हमारे ऑल टाइम फेवरेट रास्तों में शुमार हो चुका
है। शायद इसका प्रमुख कारण इतना नजदीक से बर्फ से ढके हिमालय के दीदार थे, जो दूर
होते हुए भी हमें बहुत पास लगे और हिमालय की गोद में सफर के अनुभव हमें कहीं
गहरे अपने अंदर भावों की सुरम्य घाटियों व शिखरों के बीच विचरण के रोमाँचक अहसास जगा रहे थे, जो यात्रा वृतांत की तीन कड़ियों के रुप में आपके सामने प्रस्तुत हैं।
इस यात्रा के पहले दो भाग यदि न पढ़े हों, तो नीचे लिंक्स पर देख सकते हैं -
सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-1 (ऋषिकेश-नरेंद्रनगर-चम्बा)
सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-2 (चम्बा, कानाताल,कद्दुखाल)
हिमालय का ट्रेकिंग एडवेंचर का आवाह्न |
ऐसा लग रहा हैं मानो मैं ही यात्रा कर रही हूं । खूबसूरती से शब्दों में पिरोया हुआ यात्रा वृतांत😊
जवाब देंहटाएंDhanyabad Ashmita is bhavyatra ke liye!
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