डटा रह पथिक आशा का दामन थामे
ये कशमकश भी गजब है, समझने की कोशिश कर रहे,
मंजिल है उत्तर की ओर, पग दक्षिण की ओर बढ़ रहे,
करना है बुलंदियों का सफर, ढग रसातल की ओर सरक
रहे।
गड़बड़ अंदर भीतर कहीं गहरी, उपचार सब बाहर के
हो रहे,
अपनी खबर लेने की फुर्सत नहीं, दूसरों की खबर खूब
ले रहे।
क्या यही है जिंदगी, इबादत खुदा की, बेहोशी में जिसे
हम जी रहे,
जाने अनजानें में खुद से दूर, जड़ों पर ही कुठाराघात
कर रहे।
फिर जड़ों को सींचने की तो बात दूर, पत्तियोँ-टहनियों
के सिंचन में ही इतिश्री मान बैठे,
हो फिर कैसे आदर्शों के उत्तुंग शिखरों का आरोहण,
गहरी खाई में ही जो घरोंदा बसा बैठे।
हो निजता में गुरुता का समावेश कैसे, गुरुत्व के साथ बहने में ही नियति मान बैठे,
इंसान में भगवान के दर्शन हों कैसे, जब अंदर के ईमान
को ही भूला बैठे।
इस सबके बावजूद, न हार हिम्मत, उम्मीद की किरण है बाकि,
मत हो निराश पथिक, काल की बक्र चाल यह,
छंट जाएेंगे भ्रम-भटकाव के ये पल, ठहराव का यह सघन कुहासा।
बस डटा रह, धर धीरज अपने सत्य, स्वर्धम, ईमान पर, आशा
का दामन थामे,
सच्चाई, अच्छाई व भलाई की शक्ति को पहचाने,
पार निकलने की राह फूटेगी भीतर से, आएगा वह पल जल्द ही, यह सुनिश्चित मानें।
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