लक्ष्य की ओर बढ़ता
मार्ग कहीं-कहीं गहरी घाटियोँ से होकर भी गुजरा। ये घाटियाँ भी उसे जीवन का एक
मर्म स्पष्ट कर गई। कहीं-कहीं लगा कि वह लक्ष्य के विपरीत जा रहा है, लेकिन बाद में पता
चला कि वह तो मंजिल की ओर समीप आ गया है। इसी तरह जीवन में टेढ़े-मेढ़े, उतार-चढ़ाव भरे
रास्ते आते हैं,
इन्हें
स्थायी विचलन विफलता मानने की भूल न की जाए। ये मंजिल के आवश्यक सोपान हो सकते हैं, बस चरण गति मंजिल की
ओर उन्मुख होनी चाहिए।
हिमालय की गोद में आए
नाना प्रकार के आगंतुक भी उसे कुछ संदेश दे गए। रास्ते में कई पर्यटक, घोड़ा, गाड़ी आदि से सफर कर
रहे थे, जो दुर्गम हिमालय के
महज स्तही परिचय से ही संतुष्ट थे। लेकिन कुछ साहसी रोमाँच प्रेमियों का दल ऐसा भी
था जो इतने भर से संतुष्ट नहीं था। वह पैदल ही अपना बोझा लादे आगे हिमालय की
दुर्गम वादियों की ओर बढ़ रहे थे। वे हिमालय की दुर्गम चेतना से सीधा संपर्क साध
कर जीवन के उच्चस्तरीय सत्य का साक्षात्कार करना चाहते थे।
पथिक भी उन्हीं के
साथ हो लेता है। दल का नेता उसके उत्साह, साहस व जीवट को देखकर आश्वस्त था
कि इसे साथ ले सकते हैं। रास्ते में संकरी पगड़ंडी के साथ गहरी घाटी एवं नीचे
कल-कल करती हिमनदी के किनारे से भी उसे चलना पड़ता। यहाँ थोड़ी सी भी लापरवाही, एक भी कदम की चूक का
अर्थ नीचे सैंकड़ों फीट गहरी नदी में जलसमाधि। क्या जीवन की गहरी घाटियाँ, तंग रास्ते ऐसी ही
सावधानी की माँग नहीं करते हैं। रास्ते में पत्थरों पर उत्कीर्ण सदवाक्य उसे याद आ
रहा था – सावधानी हटी दुर्घटना
घटी।
खून को जमाने वाली
ठंड में भी खिले फूल विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहने का संदेश दे रहे थे।
रास्ते में गर्म पानी के कुँड उसे किसी दैवीय चमत्कार से कम न लगे। तप्त कुण्ड में
डुबकी लगाकर उसकी सारी थकान और ठंड छूमंतर हो गई। सहज समाधि की अवस्था में वह
स्वयं को अनुभव कर रहा था। प्रकृति की उदारता और समझदारी के भाव से आह्लादित वह
सोचता रहा कि इस दुर्गम हिमक्षेत्र में उसने अपनी संतानों की सुख-सुविधा के कैसे
संरजाम जुटा रखे हैं।
आगे गलेशियर को पार
करता हुए दल हिमशिखर की ओर आरोहण करता है। कदम दर कदम बदन को भेदती बर्फीली तेज
हवा के प्रहारों को झेलता हुआ वह यहाँ तक पहुँचा है। शिखर पर पहुँचते ही नीचे
अनगिन हिमश्रृंखलाएं जैसे उसके चरणों के नीचे लग रही थी। दूर-दूर तक घाटियों का
विहंगम दृश्य देखते ही बनता था। ऐसे लग रहा था जैसे कि वह किसी दूसरे ही लोक में
विचरण कर रहा है।
यहीं एक स्थान पर वह
शिला पर आसन जमा लेता है और ध्यानस्थ हो गया। उसे लगा कि जैसे हिमालय का शिखर उसकी
चेतना का शिखर है। अपने जीवन का अतीत जैसे फिल्म की तरह उसकी अंतदृष्टि के सामने
से गुजरता है। इसकी जीत-हार, उतार-चढाव, सफलता-विफलता, अपने-पराए सारे उसके सामने कुछ ही क्षणों में पार हो जाते हैं
और जीवन का एक समग्र बोध वह पाता है। वर्तमान जीवन का उसे सम्यक बोध हो जाता है और
संग भविष्य की दृष्टि भी साफ हो जाती है। घनीभूत आत्मचेतना के संग वह हिमालय की
चेतना से स्वयं को एकाकार अनुभव कर रहा था।
इस अवस्था में उसे
लगा कि हिमालय की घाटियाँ,
जंगल, कंदराएँ, खुंखार जानवर, नदियाँ, पर्वत, खाईयाँ, झील, झरने सब उसके अंदर ही
मौजूद हैं। अनगढ़ मन घना जंगली प्रांत है, जिसमें विविध विकार रुपी पशु अचेतन मन
रुपी गुफा मे छिपे रहते हैं। असावधान साधक पर ये हमला करते रहते हैं। इसी के अंदर
स्वयं की खोदी हुई खाईयाँ हैं, तो दिव्य भावनाओँ एवं संभावनाओँ की हिमनदियाँ, झीलें भी। जहाँ यदा-कदा
अपने रुप को निहार सकते हैं, जिसमें डुबकी लगाकर तरोताजा हो सकते हैं। ध्यान के चरम पर उसे
अहसास हुआ कि समूची प्रकृति, हरियाली के माध्यम से महत्प्रकृति ही अभिव्यक्त हो रही है।
प्रकृति के माध्यम से ही हम उस तक पहुँच सकते हैं। प्रकृति ही नहीं यह सारा जगत-संसार
उसी परमतत्व एवं उसकी पराशक्ति का विस्तार है।
उसके अंतःकरण में
हिमालय की दिव्य चेतना का प्रकाश अवतरित हो रहा था। जीवन की उल्झी गुत्थियों का
समाधान मिल रहा था। एक नई जीवन दृष्टि के साथ उसका जीवन लक्ष्य भी और स्पष्ट हो
गया था। एक प्रकाशपूर्ण चेतना के साथ उसका व्यक्तित्व औत-प्रोत था। हिमालय के संग
प्रकृति की गोद में विचरण उसके लिए अब एक आध्यात्मिक अनुभव बन गया था।
कुछ दिनों का यह
प्रवास उसके लिए एक रुपांतरकारी अनुभव रहा। जब वह घर आता है तो उसका परिवार, यार दोस्त एवं परिचित
जन उसके बदले रुप,
उसकी
ताजगी, ऊर्जा, उत्साह व संतुलन को
देख विस्मित थे कि जीवन का कायाकल्प किस जादू की छडी के साथ हुआ है। लोग पूछते तो
वह मुस्कुरा देता। सच्चे जिज्ञासुओं को वह रहस्य खोलता कि कैसे प्रकृति की गोद में, हिमालय के दैवीय
स्पर्श ने उसके जीवन को रुपांतरित कर दिया है।
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