फुर्सत के कुछ लम्हें
कितने दुर्ळभ हो चलें हैं आज की भागमभाग भरी जिंदगी में। यदि मिल भी जाएं तो टीवी, इंटरनेट, यार-दोस्त, पार्टी और गप्प-शप्प।
पता ही नहीं चलता कि कैसे बीत गए। जबकि इन पलों को प्रकृति
के संग विताया जाए तो ये क्षण जीवन के यादगार पल सावित हो सकते हैं। मनोरंजन के
साथ शिक्षा के,
प्रेरणा
के, शाँति-सकून के और
सृजन के आनन्द के,
आत्म
अन्वेषण, आत्म विकास के माध्यम
हो सकते हैं।
प्रकृति की गोद में
फुर्सत के ये पल जीवन के रुपांतरण की पटकथा लिख सकते हैं। प्रस्तुत है एक ऐसी ही
एक जीवन यात्रा जो किसी के भी जीवन का सत्य हो सकती है।
हिमालय की गोद में यह
उसकी पहली यात्रा थी। हिमालय के बारे में बहुत कुछ सुन-पढ़ रखा था। साथ ही बचपन से
ही हिमाच्छादित पर्वतश्रृंगों के प्रति ह्दय में एक अज्ञात सा आकर्षण था, लेकिन जीवन के
गोरखधंधे में उल्झा जीवन अभी तक इसकी इजाजत नहीं दे रहा था।
तमाम उपलब्धियों के
साथ विताया जा रहा संसारी जीवन अब बोझिल हो चला था। जीवन की जटिलताएं कुछ इस कदर
हावी हो चलीं थी कि अपने लिए सोचने की फुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी। जीवन में कुछ
करने की महत्वाकाँक्षा,
जीवन
के सुख भोगने की कामना उसे शहर ले गई थी। एक अच्छी नौकरी उसे मिल गई थी। सुंदर
जीवन संगिनी,
प्यारी
सी संतान, अपने पर जान-न्यौछावर
करने वाले यार-दोस्त,
भौतिक
जीवन के सभी सुख-साधन तो थे उसके पास, जो वह सोचता था। उसकी भरपूर कीमत भी वह चुका
रहा था। स्वाभिमानी ऐसा था कि वह अपनी मेहनत से अर्जित चीजों पर ही अपना हक मानता
था और मनचाहे जीवन की भरपूर कीमत चुका रहा था।
रोज सुबह आफिस की
भागमभाग, फिर दिन भर काम का
बोझ, इसके साथ कैरियर में
आगे बढ़ने की गलाकाट प्रतियोगिता, ईर्ष्यालु विरोधियों के षडयंत्र, राजनीतिक दाँव-पेच, अपनों के प्रपंच -
कुल मिलाकर सफलता के साथ जुड़े सभी अवाँछनीय तत्व साथ थे और जीवन एक साक्षात नरक
बन गया था।
शरीर कई रोगों का
अड्डा बनता जा रहा था। मन चिंता, विषाद,
अनजाने
भय और न जाने कितने मनोविकारों का घर बन गया था। ऐसे में वह जैसे अर्धविक्षिप्तता
के दौर से गुजर रहा था। जीने का मकसद हाथ से निकल गया था, एक बोझिल ढर्रे में
कोल्हू के बैल की तरह पीसता जीवन भारभूत बन गया था। जीवन ऐसे विषादपूर्ण बिंदु पर
आ गया था कि इसमें खोने जैसा कुछ नहीं रह गया था। अतः कुछ दिनों के लिए इससे पलायन
का मन बन जाता है और वह कूच करता है हिमालय की ओर।
रात तो पहाड़ के
टेढ़े-मेढ़े रास्ते बस में झूलते हुए बीत गई। जब उसकी आँख खुली तो देखा कि वह
हिमालय के द्वार पर खडा है। वह एक संकरी घाटी को पार करता हुआ हिमालय के वृहतर
क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। उसे लगा जैसे जीवन की तंग अँधेरी सुरंग को पार करता
हुआ वह
जीवन
की असीम संभावनाओँ के आलोकित व्योम में अपने पंख फैला रहा है। वाहरी यात्रा के साथ
एक समानान्तर यात्रा उसके अंदर चल रही थी, जिसमें उसे अस्तित्व के गूढ़
सुत्र-समाधान मिल रहे थे।
सामने खड़ा
हिमाच्छादित हिमालय शिखर में तो जैसे उसे अपने जीवन के आदर्श-ईष्ट-गुरु-भगवान सब
कुछ मिल गय थे। जीवन लक्ष्य ऐसा ही उत्तुंग हो और साथ ही ऐसा ही ध्वल-पावन। इसके
लिए हिमालय की तरह स्थिरता,
दृढ़ता, सहिष्णुता भी, जो विषम मौसम की
प्रतिकूलताओं के बीच भी मौन ध्यान योगी की तरह अविचल तपःलीन रहता है। शिव-शक्ति की
लीलाभूमि, ऋषियों की तपःस्थली
में उसे अपना आध्यात्मिक लक्ष्य मिल गया था। चेतना के शिखर पर आत्मबोध-ईश्वर बोध
को उसे जीवन में साकार करना था।
यहाँ का कण-कण उसके
लिए पावन था और जीवंत प्रेरणा का स्रोत। हिमालय की गोद में उछलती कूदती नीचे बढ़ती
निर्मल हिमनद में जैसे उसने अपने जीवन की राह पा ली थी। पिता की गोद में
निर्दन्द-निश्चिंत भाव से खेलती ये नदियाँ आगे संकरी घाटियों में कितनी शांत-गंभीर
हो जाती हैं, लेकिन एक भी पल कहीं रुकती नहीं। हिमालय की शीतलता-सात्विकता साथ लिए
ये समुद्रपर्यन्त बढ़ती रहती हैं और बिना किसी भेद भाव के मुक्त हस्त से हरियाली, शीतलता और ऊर्बरता
का वरदान सबको बटोरती रहती हैं।
देवदार के आसमान छूते
वृक्ष भी उसे दैवीय संदेश दे रहे थे। हिमालय की विरल पहाडियों की असली शान तो ये
देववृक्ष हैं। हिमालय के संग सान्निध्य में ये भी ध्यानस्थ दिखते हैं। आसमान छूते
इनके व्यक्तित्व से हिमालय की गुरुता ऐसे झरती रहती है जैसे हिमालय से गंगा। मौन
तपस्वी की भाँति ये न जाने कब से खड़े हैं शिव की तरह यहाँ के वायुमंडल से विषाक्त
तत्वों को आत्मसात कर विश्व को प्राणदायी वायु का संचार करते हुए। (जारी, शेष अगली पोस्ट
में...)
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