सांस्कृतिक उल्लास का अनूठा देव-संगम
कुल्लू का दशहरा स्वयं में अनूठा है। हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा यह
उत्सव तब शुरु होता है जब देश के बाकि हिस्सों में दशहरा खत्म होता है। आश्विन
नवरात्रि के बाद दशमी के दिन इसके शुभारम्भ के कारण इसे विजय दशमी कहा जाता है,
जिसमें भगवान राम द्वारा रावण के संहार, माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर के मर्दन के
साथ असुरता पर देवत्व, असत्य पर सत्य और अधर्म पर धर्म की जीत का भाव रहता है।
हालांकि कुल्लू के दशहरे में रावण को जलाया नहीं जाता, यहाँ का दशहरा भगवान रघुनाथ
और घाटी के देवी-देवताओं के समागम के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है, जिसकी अपनी
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – कुल्लू में दशहरे की शुरुआत आज से लगभग साढ़े चार सौ साल
पहले यहाँ के राजा जगतसिंह द्वारा 17वीं शताब्दी में (1660) हुई बतायी जाती है। राजा जगतसिंह एक ब्राह्मण के
शाप के कारण कुष्ठरोग से पीडित हो गए थे। ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए
उन्हें अयोध्या से रघुनाथ के विग्रह को अपने यहाँ स्थापित करने का आदेश मिलता है,
जिसका पालन करते हुए वे सुलतानपुर में भगवान राम की स्थापना करते हैं। सारा राजपाट
रघुनाथ के चरणों में अर्पित कर, प्रथम सेवक के रुप में राजकाज चलाते हैं। क्रमशः राजा
रोगमुक्त हो जाते हैं। भगवान रघुनाथ को अपनी श्रद्धांजलि स्वरुप कुल्लू में दशहरे
का चलन शुरु होता, जिसमें घाटी के लगभग 365 देवी-देवता भगवान रघुनाथ को अपना
भावसुमन अर्पित करते हुए सात दिन ढालपुर मैदान के अस्थायी शिविरों में वास करते
हैं। पहले दिन रथ यात्रा से अंत में मुहल्ला व लंका दहन के साथ दशहरा सम्पन्न होता है।
इस रुप में कुल्लू के दशहरे को सांस्कृतिक-आध्यात्मिक उल्लास का देवसमागम कहें तो
अतिश्योक्ति न होगी।
देवसमागम एवं रथ यात्रा पहला दिन – मेले की शुरुआत कुल्लू घाटी से पधारे देवताओं की
भगवान रघुनाथ के दरवार में हाजिरी से होती है। लगभग 3 बजे के करीब भगवान रघुनाथ की
पालकी कुल्लू नरेश के निवासस्थल सुलतानपुर से चलती है और ढालपुर मैदान के ऊपरी छोर पर रथ में इसे सजाया जाता
है। इस स्थल पर घाटी भर से पधार रहे देवी-देवता रंग-बिरंगे फूलों व रेशमी चादरों
से सजे रथों में देवलुओं के कंधों पर सवार होकर रघुनाथजी की सभा में शामिल होते
हैं। देवताओं के समागम का उत्साह, उनकी हलचलें व देवक्रीडा का अद्भुत दृश्य
दर्शकों को रोमाँचित करता है। सुलतानपुर के ऊपर पहाड़ पर विराजमान देवी भेखली माता
का ईशारा पाते ही भगवानराम, सीतामाता, हनुमानजी, बिजली महादेव, माँ हिडिम्बा आदि
की जयकार के साथ रथ यात्रा शुरु होती है।
राजपुरोहित और छड़ीबरदार राजा की उपस्थिति में काफिला आगे बढ़ता है। दर्शक रथ के रस्सों को हाथ लगाकर धनभाग अनुभव करते हैं तथा रथ को मैदान के दूसरे छोर तक खींचते हैं। भगवान रघुनाथ का रथ देवी-देवताओं के काफिले व दर्शकों के अपार समूह के साथ आगे बढ़ता है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मीडिया को इस अदभुत दृश्य को कैद करते देखा जा सकता है। दिव्य भावों के साथ आगे बढ़ रहा स्वअनुशासित जनसमूह अपने आप में एक अद्भुत नजारा रहता है। इसी के साथ भगवान रघुनाथ सहित सभी देवी-देवता अपने निर्धारित स्थान पर, अस्थायी शिविरों में स्थापित होकर दशहरे की शोभा बढ़ाते हैं और सात दिन तक विराजमान रहते हैं।
राजपुरोहित और छड़ीबरदार राजा की उपस्थिति में काफिला आगे बढ़ता है। दर्शक रथ के रस्सों को हाथ लगाकर धनभाग अनुभव करते हैं तथा रथ को मैदान के दूसरे छोर तक खींचते हैं। भगवान रघुनाथ का रथ देवी-देवताओं के काफिले व दर्शकों के अपार समूह के साथ आगे बढ़ता है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मीडिया को इस अदभुत दृश्य को कैद करते देखा जा सकता है। दिव्य भावों के साथ आगे बढ़ रहा स्वअनुशासित जनसमूह अपने आप में एक अद्भुत नजारा रहता है। इसी के साथ भगवान रघुनाथ सहित सभी देवी-देवता अपने निर्धारित स्थान पर, अस्थायी शिविरों में स्थापित होकर दशहरे की शोभा बढ़ाते हैं और सात दिन तक विराजमान रहते हैं।
प्रातः-साँय आरती, देवधुन – प्रातः-सांय देवी-देवताओं की आरती का क्रम चलता है। इनकी
देवधूनों के साथ पूरे मैदान व घाटी में सकारात्माक ऊर्जा का संचार होता है, लगता
है जैसे आसुरी व नकारात्मक शक्तियाँ यहाँ से तिरोहित हो रही हैं। घाटी भर से आ रहे
दर्शनार्थी अपने ईष्ट देवताओं के दर्शन करते हैं और अपनी श्रद्धांजलि व भेंट अर्पित
करते हैं। कुछ देवलुओं को दिन में फुर्सत के पलों में नाटी का लुत्फ उठाते देखा जा
सकता है, जो उनके उल्लास की सहज अभिव्यक्ति होती है। शाम को रघुनाथ के शिविर में
पारंपरिक शैली में रासलीला व अन्य देवनृत्यों का भी मंचन होता है।
ऋतु संधि का उल्लास एवं कृषि-बागवानी प्रदर्शनी –
वास्तव में दशहरे का पर्व ऋतु संधि की
बेला में मनाया जाता है, जब किसान व बागवान फसल, फल, सब्जी आदि के कृषि कार्यों से
लगभग मुक्त हो चुके होते हैं। ऐसे में फसल के पकने का उल्लास भी इस मेले में देखा
जा सकता है। घाटी भर के किसान व बागवान अपने फल-सब्जी-अनाज के श्रेष्ठ उत्पादों के
साथ आते हैं। कृषि एवं उद्यान विभाग द्वारा आयोजित प्रदर्शनियों में इनकी नुमाईश
होती है और बेहतरीन उत्पादों को प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कारों से नवाजा जाता
है। किसानों के बेहतरीन उत्पादों का दर्शन एक शैक्षणिक व प्रेरक अनुभव रहता है जो
जिज्ञासु दर्शकों का खासा ज्ञानबर्धन करता है। इसी तरह यहाँ तमाम तरह के घरेलु
उत्पादों की प्रदर्शनियां लगी होती हैं, जिन्हें वाजिब दामों में खरीदा जा सकता है।
खरीददारी, मार्केट – एक धार्मिक उत्सव के साथ दशहरे का अपना
अर्थशास्त्र भी है। कुल्लू लाहौल-स्पिति जैसे उच्च हिमालयी क्षेत्र तथा पंजाब जैसे मैदानी क्षेत्र के बीच का स्थल है। सर्दी में नबम्बर के बाद जनजातीय क्षेत्र भारी बर्फ के कारण यहाँ से कट जाते हैं, इसलिए अपने जरुरत के सामानों की खरीद दशहरे में जमकर होती है। इसी तरह वे अपने यहाँ से तैयार उत्पाद इसमें बेचते हैं।
आश्चर्य नहीं कि मेले का एक बढ़ा आकर्षण रहती है पूरे ढालपुर मैदान में आर-पार फैली मार्केट, जिसमें सर्दी के कपड़ों से लेकर, पारम्परिक परिधान, महिलाओं के साज-सज्जा के सामान, बच्चों के खिलौने व घर-परिवार व खेत-बागान में उपयोग होने बाले हर तरह के सामान उपलब्ध रहते हैं। कहने की जरुरत नहीं कि इसमें कुल्लबी शाल, टोपी, पट्टू, मफलर, ऊनी जुराबें व अन्य उत्पाद सहज रुप में उपलब्ध रहते हैं। देशभर के कौने-कौने से व्यापारी इसमें पधारते हैं। यहाँ ब्रांडेड क्लाविटी प्रोडक्ट से लेकर क्वाड़ी मार्केट, हर तरह के सामान मिलते हैं। खास बात रहती है इनका वाजिब व सस्ते दामों में उपलब्ध रहना। अनुमान रहा कि इस वर्ष (2017) लगभग 5000 व्यापारी इसमें पधारे थे।
आश्चर्य नहीं कि मेले का एक बढ़ा आकर्षण रहती है पूरे ढालपुर मैदान में आर-पार फैली मार्केट, जिसमें सर्दी के कपड़ों से लेकर, पारम्परिक परिधान, महिलाओं के साज-सज्जा के सामान, बच्चों के खिलौने व घर-परिवार व खेत-बागान में उपयोग होने बाले हर तरह के सामान उपलब्ध रहते हैं। कहने की जरुरत नहीं कि इसमें कुल्लबी शाल, टोपी, पट्टू, मफलर, ऊनी जुराबें व अन्य उत्पाद सहज रुप में उपलब्ध रहते हैं। देशभर के कौने-कौने से व्यापारी इसमें पधारते हैं। यहाँ ब्रांडेड क्लाविटी प्रोडक्ट से लेकर क्वाड़ी मार्केट, हर तरह के सामान मिलते हैं। खास बात रहती है इनका वाजिब व सस्ते दामों में उपलब्ध रहना। अनुमान रहा कि इस वर्ष (2017) लगभग 5000 व्यापारी इसमें पधारे थे।
फूड कॉर्नर और देसी जायके – हर मेले की तरह खान-पान की विशेष सुविधा यहाँ
रहती है। प्रचलित मिठाइयों से लेकर लंच-डिन्नर की व्यवस्था तो रहती ही है, खान-पान के उभरते नए चलन यहाँ देखे जा सकते हैं, जिसमें देसी जायकों की भरमार खास रहती है। कुल्लू के पारम्परिक व्यंजनों में
सिड्डू की लोकप्रियता सबपर भारी दिखी। सिड़्डू कॉर्नर के नाम से तमाम दुकानों के नाम दिखे। इसी तरह मंडी की कचोरी, पंजाब के मक्के दी
रोटी व सरसों का साग तथा चाइनीज मोमोज भी इसमें अपना स्वाद घोलते दिखे। नॉन वेज की जगह वेज
उत्पादों का बढ़ता चलन मेले की देवपरम्परा को पुष्ट करता प्रतीत हुआ।
कलाकेंद्र – घाटी की शान स्व. लालचंद प्रार्थी के नाम
अर्पित कलाकेंद्र संगीत, नृत्य व कला प्रदर्शनों के साथ गुलजार रहता है। बैसे
तो दिन भर ही यहाँ नाटी के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम चलते रहते हैं, लेकिन रात को
7 से 10 बजे के बीच कलाकेंद्र आकर्षण का केंद्र रहता है, जिसमें देश ही नहीं
दुनियां के कौने से आए कलाकार इसमें अपनी प्रस्तुती देते हैं। दशहरे का
अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप इन कार्यक्रमों में भलीभांति देखा जा सकता है। सकारात्मक
संदेशों के साथ सांस्कृतिक उल्लास का स्फोट यहाँ होता देखा जा सकता है।
नाटी के संग बेटी बचाओ का संदेश – नाटी जहाँ घाटी का लोकप्रिय नृत्य है, जिसके बिना
मेले की चर्चा अधूरी मानी जाएगी। इस बार 12000 महिलाओं द्वारा इसका वृहद आयोजन
आकर्षण का केंद्र रहा, जिसे वेटी बचाओ के सामाजिक संदेश के साथ आयोजित किया गया।
पिछले ही वर्ष सामूहिक नाटी को गिनिज बुक ऑफ रिकोर्ड में स्थान मिला था।
खेलकूद – खेलकूद मेले का अभिन्न हिस्सा रहता है। बालीवाल,
कब्ड़डी से लेकर बॉक्सिंग के मैच देखे जा सकते हैं। खेल प्रेमियों का जमाबड़ा
इनमें मश्गूल देखा जा सकता है। इसे स्थानीय
स्तर पर भी आयोजित किया जाता है और अंतर्राजीय स्तर पर भी, जिसमें हर वर्ग
व हर स्तर की प्रतिभा को भाग लेते देखा जा सकता है। निसंदेह रुप में नवोदित खिलाड़ियों को इसमें
उभरने को मौका मिलता है।
कैटल मार्केट, मेले के निचले छोर पर किसानों के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है। जिसमें एक से एक नस्लों की गाय-बैल, भेड़-बकरियों, घोड़े,
खच्चर आदि की खरीद-फरोख्त होती है। इसमें खरीदे मनपसंद मवेशियों को साथ लेकर घर की ओर
बढते किसान परिवारों की खुशी व उत्साह देखते ही बनते हैं। इनके साथ मेले में भांति-भांति
के झूलों से लेकर, मौत का कुँआ व सरकस आदि मनोरंजक खेल बच्चों से लेकर युवाओं एवं बुजुर्गों का
मनोरंजन करते हुए मेले में एक नया रंग घोलते देखे जा सकते हैं।
दशहरे अंतिम दो दिन - मेले के छट्ठे दिन मुहल्ला मनाया जाता है, जिसमें
देवताओं का आपसी मिलन होता है। साथ ही घाटी से आए देवता भगवान रघुनाथ को श्रद्धांजलि अर्पित
करते हैं। अंतिम दिन लंका दहन का रहता है, जिसमें राजपरिवार की कुलदेवी माता
हिडिम्बा के नेतृत्व में देव काफिला व्यास नदी के किनारे बेकर(टापू) तक बढ़ता
है।
वहाँ झाड़-झंखारों को जलाने व इसके बीच रावण, मेघदूत व कुंभकरण के मुखौटों को तीर से भेदने के साथ लंका दहन व लंका विजय का भाव किया जाता है। इसी के साथ बलि प्रथा का चलन भी जुड़ा हुआ है, जिसमें भैंसे से लेकर मेढ़ा, सुअर, मुर्गा व मछली की बलि दी जाती है। हालांकि 2014 में हाईकोर्ट के आदेशानुसार इस पर पाबंदी लगी थी लेकिन कुल्लू नरेश की अपील पर मामला फिर विचाराधीन है।
हालांकि इस प्रथा की शुरुआत जिन भी परिस्थितियों में हुई हो, देवसंस्कृति के नाम पर निरीह पशुओं की बलि दशहरे जैसे सांस्कृतिक-आध्यात्मिक पर्व की मूल भावना के अनुकूल नहीं है। इसे जितना जल्द बंद किया जा सके, उचित होगा। निरीह पशुओं के प्राणों की बलि की जगह अगर दशहरे के इस कर्मकाण्ड को इंसानियत के प्राणों का हनन करने वाले दोष-दुगुर्ण रुपी आंतरिक पशुओं की बलि की ओर मोड़ा जा सके तो शायद दशहरे का पावन भाव तात्विक रुप में जीवंत-जाग्रत हो सके और इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के साथ असत्य पर सत्य, असुरता पर देवत्व और अधर्म पर धर्म की विजय का मूल संदेश पूरे विश्व में देवसंस्कृति की मूल भावना के अनुरुप गुंजायमान हो उठे।
वहाँ झाड़-झंखारों को जलाने व इसके बीच रावण, मेघदूत व कुंभकरण के मुखौटों को तीर से भेदने के साथ लंका दहन व लंका विजय का भाव किया जाता है। इसी के साथ बलि प्रथा का चलन भी जुड़ा हुआ है, जिसमें भैंसे से लेकर मेढ़ा, सुअर, मुर्गा व मछली की बलि दी जाती है। हालांकि 2014 में हाईकोर्ट के आदेशानुसार इस पर पाबंदी लगी थी लेकिन कुल्लू नरेश की अपील पर मामला फिर विचाराधीन है।
हालांकि इस प्रथा की शुरुआत जिन भी परिस्थितियों में हुई हो, देवसंस्कृति के नाम पर निरीह पशुओं की बलि दशहरे जैसे सांस्कृतिक-आध्यात्मिक पर्व की मूल भावना के अनुकूल नहीं है। इसे जितना जल्द बंद किया जा सके, उचित होगा। निरीह पशुओं के प्राणों की बलि की जगह अगर दशहरे के इस कर्मकाण्ड को इंसानियत के प्राणों का हनन करने वाले दोष-दुगुर्ण रुपी आंतरिक पशुओं की बलि की ओर मोड़ा जा सके तो शायद दशहरे का पावन भाव तात्विक रुप में जीवंत-जाग्रत हो सके और इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के साथ असत्य पर सत्य, असुरता पर देवत्व और अधर्म पर धर्म की विजय का मूल संदेश पूरे विश्व में देवसंस्कृति की मूल भावना के अनुरुप गुंजायमान हो उठे।