घाघरिया से हेमकुंड साहिब
एवं बापस गोविंदघाट
फूलों की घाटी की ओर –
घाघरिया से फूलों की घाटी
महज 3-4 किमी आगे है। अतः आज के बचे हुए समय में हम यहाँ के दर्शन करना चाह रहे
थे। हेमकुंड से आ रही हेमगंगा(लक्ष्मणगंगा) के पुल को पार कर हम फूलों की घाटी में
प्रवेश के इच्छुक थे। लेकिन वहाँ पता चला कि 2 बजे के बाद घाटी में प्रवेश वर्जित
है। अतः हम वहीं घाटी द्वार पर एक ग्रुप फोटो के साथ संतोष कर वापिस हो लिए।
रास्ते में हनुमान
मंदिर से होते हुए हेमकुंड मार्ग का अवलोकन करते हुए पार हुए। सामने हेमकुंड से आ
रहे हिमनद पर बने झरने को देख सब उस ओर बढ़ चले। हेमगंगा की धारा के
तेज प्रवाह को पार कर झरने तक बढ़ने लगे। ग्रुप के रफ-टफ लोग ही झरने तक पहुँच
पाए, बाकि नीचे चट्टानों पर ही अठखेलियाँ करते रहे।
झरने का आलौकिक दृश्य –
झरने का दृश्य स्वयं में
आलौकिक था। इंद्रधनुषी आभा के साथ इसका निर्मल जल झर रहा था। कल-कल कर हवा में
घुलता इसका दिव्य निनाद मन को ध्यान की गहराइयों में उतार रहा था। सामने उस
पार फूलों की घाटी के पीछे के हिमाच्छादित
पर्वत शिखर एकदम पास दिख रहे थे। थोड़ी ही देऱ में सब थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आसन जमाकर ध्यानस्थ हो
गए।
ये पल सबके लिए निश्चित रुप से चिरस्मरणीय रहेंगे। आसमान में छाए बादलों से
होकर झिलमिलाती सूर्य किरणें जैसे अज्ञान-अंधकार से आच्छादित शिष्यों पर गुरुकृपा की
प्रकाश किरणों की तरह बरसती हुई प्रतीत हो रहीं थीं। इस तरह कुछ पल गहन चिंतन-मनन एवं निदिध्यासन के बिताकर हम बापस बेस केंप की ओर आ गए। रात को समय पर सोकर सुबह तड़के 4
बजे तैयार होकर अपनी मंजिल हेमकुंंड साहिब की ओर बढ़ना था।
हेमकुंड सरोवर की ओर –
टीम के जिन कमजोर सदस्यों को
यहाँ रोकने की सोचे थे वे कोई भी रुकने को तैयार नहीं थे। सबका उत्साह व जज्बा
देखते हुए ग्रुप के 7 सदस्यों को खच्चरों पर बिठाकर बाकि पैदल हेमकुंड सरोवर की ओर कूच कर
गए।
तीर्थयात्रियों की भीड़ जमना शुरु हो गई थी। कुछ खच्चरों का इंतजाम कर रहे थे तो कुछ पैदल। अभी अंधेरा छाया था। खच्चर रास्ते के हर कोनों से परिचित लगे। एक लय में धीरे-धीरे
चढ़ाई चढ़ रहे थे। उनके गले में बंधी घंटियां हॉर्न का काम दे रही थी।
धीरे-धीरे लगभग आधे घंटे बाद भोर का उजाला छाने लगा।
धीरे-धीरे हिमाच्छादित पर्वत
शिखरों पर सूर्य की पहली किरणें उतर रहीं थी। बर्फ से ढके पहाड़ सोने के शिखर
प्रतीत हो रहे थे। धीरे-धीरे इनकी चमक बढ़ती गई और ये सोने से चाँदी के पर्वत में
बदल रहे थे।
इस तरह आधे सफर के बाद एक
ढ़ाबे में चाय-बिस्कुट के साथ कुछ पल विश्राम कर, काफिला धीरे-धीरे आगे बढता गया।
खच्चर मार्ग जहाँ आगे हल्की चढ़ाई लिए हुए आर-पार होकर जाता है, तो वहीं पैदल मार्ग
शॉर्टकट लिए सीधी खड़ी चढ़ाई लिए है। इसके अंतिम पड़ाव तक पदयात्री थक कर चूर हो चुके थे। शरीर जबाब दे चुका था, बस ह्दय की आस्था और जीवट के सहारे सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था।
इस तरह हम हेमकुंड साहिब से झर रही हेमगंगा
झरने के नीचे पहुँचते हैं। यहाँ से झर रही अनगिन पानी की झालरें एक ओर जहाँ अद्भुत नजारा
पेश कर रहीं थीं, वही मंजिल पर पहुंचने का सुकूनदायी अहसास भी दिला रही थीं।
इसका पानी नीचे दुधिया रंग की तेज धारा के रुप में बह रहा था।
रास्ते में ब्रह्मकमल के दुर्लभ दर्शन भी हमारे कुछ जागरुक सदस्यों को हो चुके थे।
कुछ ही देर में हम हेमकुंड साहिब के द्वार पर थे। काफिला इकट्ठा होकर नीचे घाटी
का अवलोकन करता है तो विश्वास नहीं हुआ कि 6 किमी की खड़ी चढ़ाई भरा दुर्गम पथ पार कर हम इस ऊँचाई तक पहुंच चुके हैं। सामने पर्वत के पार बर्फ से ढकी सफेद चोटी दिखी। पता चला वह बद्रीनाथ
के पीछे का नीलकंठ शिखर है।
पावन सरोवर में डुबकी –
काफिला इकट्ठा होने के बाद
सरोवर की ओर चल पड़ा। यह वही सरोवर है जिसके किनारे सिक्खों के दशमगुरु गोविंद सिंह ने पूर्व जन्म में घोर तप किया था। गुरु साहिबान की आत्मकथा विचित्र नाटक में इसका रोमांचक वर्णन है। इसमें वर्णित सप्तश्रृंग प्रत्यक्ष सामने थे, जिन्हें सप्तऋषियों का प्रतीक माना जाता है। ऋषिवत् ही जैसे ये यहाँ ध्यानमग्न प्रतीत हो रहे थे। हर शिखर के ऊपर निशां साहिब फहरा रहे थे। हर वर्ष 5 अगस्त के दिन एक विशिष्ट अनुष्ठान के तहत इनका पावन आरोहण किया जाता है। ज्ञातव्य हो कि यह पावन स्थल मई से सितम्बर-अक्टूबर तक ही गम्य रहता है। बाकि समय यहाँ बर्फ रहती है। सर्दियों में तो यहाँ 40फीट तक की बर्फ जम जाती है।
सरोवर स्थानीय गलेशियरों से पोषित है। सितम्बर माह में बर्फ हालांकि अपने न्यूनतम स्तर पर थी। तप साधना के लिए आदर्श इस एकांतिक स्थल की रमणीयता एवं विषमता रोमाँचित कर रही थी। ऐसे ही कुछ भावों के सागर में गहरी डुबकी लगाते हुए, हम सरोवर में उतरे।
सबने इसके निर्मल जल में डुबकी लगाई। सरोवर के जल में तीन
डूबकी के बाद लगा जैसे कहीं शरीर न जम जाए। पानी इतना ठंडा था, फ्रीजिंग कोल्ड। लेकिन बाहर निकलते ही तन-मन तरोताजा था, लगा जैसे कि जन्म-जन्मांतर के पाप-ताप कट गए और रुह हल्की और प्रकाशित हो रही है।
यहाँ से फिर भंडारे में गर्मागर्म चाय और खिचड़ी का प्रसाद लेकर कुछ गर्माहट शरीर
को दिए। फिर गुरुद्वारे में कुछ माथा टेककर चल रहे गुरुवाणी के शब्दकीर्तन का श्रणव-सतसंग कर बाहर
आए।
थककर चूर कुछ राही बाहर चट्टान पर गहरी योगनिद्रा में लीन थे। जीवन में पहली
बार पहाड़ों का दर्शन करने बाली इन जीवात्माओं का 15500 फीट की ऊँचाई तक सकुशल चढ़ना हमें आश्चर्यचकित कर रहा था, लेकिन अटल आस्था एवं गुरुकृपा के बल पर क्या असंभव,
यह उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही थी।
लक्ष्मण मंदिर के दर्शन –
गुरुद्वारे के ही साथ वाईँ
ओर लक्ष्मण मंदिर है। लोकमान्यता के अनुसार, भगवान राम के भ्राता लक्ष्मण की यह तपस्थली रही है। स्थानीय हिंदु परिजनों के बीच
इस क्षेत्र की लोकपाल के रुप में विशिष्ट मान्यता है। नित्य पुजारी घाघरिया से
यहाँ पूजन करने आते हैं। विशिष्ट अवसरों पर यहाँ भी धार्मिक अनुष्ठान एवं आयोजन
होते रहते हैं।
हिमालय की शान - दुर्लभ ब्रह्मकमल का गलीचा –
गुरुद्वारे के ठीक पीछे साइड में ब्रह्मकमल का गलीचा बिछा
था। यहाँ फूल तोड़ना मना है, अतः कुछ इनको कैमरे में कैप्चर कर थे तो कुछ लोग इनका
दुर्लभ दूरदर्शन कर रहे थे। ज्ञातव्य हो कि ब्रह्मकमल 12,000 फीट से ऊपर की ऊँचाइयों में उगने वाला दिव्य गंध लिए हुए पुष्प है।
सूर्योदय के साथ सरोवर का बदलता रंग भी दर्शनीय लगा।
कारण, जल इतना निर्मल है कि जैसा आकाश का रंग होता है वही प्रतिबिम्बित होकर झील
का रंग प्रतीत होता है, सभी सप्तश्रृंग इसमें प्रतिबिम्बित होकर एक आलौकिक नजारा पेश करते हैं। सरोवर के ऊपर ट्रैकिंग व चहलकदमी आदि बर्जित है, जो सरोवर की पवित्रता-पावनता को बनाए रखने के हिसाव से उचित भी है।
सफर बापसी का –
कुछ यादगार पल यहाँ विताकर काफिला तन-मन से तरोताजा होकर वापस नीचे उतरा। रास्ते में सीधा नीचे घाघरिया के दर्शन हो रहे थे। नीचे की
उतराई में घुटने के नीचे की टाँगों की विशेष परीक्षा होती है। लगातार उतराई में
तेज दौड़ने से टाँगें जैसे खुद व खुद दौडने लगती हैं। निश्चित रुप में जहाँ चढ़ाई
में फेफड़ों की परीक्षा होती है, तो वहीं उतराई में टाँगों की।
राह में बनी हुई चट्टियों, ढाबों व छायादार वृक्षों की छांव चले हम बीच-बीच में दम भरते हुए घाघरिया की ओर बढ़ रहे थे। हालांकि मार्ग अधिकांशता चट्टानी पर्वतों से घिरा है, लेकिन रास्ते में जंगली फलों व भोजपत्र के वन दर्शनीय हैं।
इस तरह घाघरिया पहुँचकर हम सामान समेटे और गुरुद्वारा लंगर
में प्रसादा ग्रहण कर गोविंदघाट की ओर बढ़ चले। कुछ हमारे थके साथी खच्चर पर सवार होकर चल पड़े, तो अधिकांश पैदल ही उतर रहे थे।
रास्ते में भ्यूंडर में ब्रह्मकमल
के पुष्पगुच्छों के साथ स्थानीय पुजारी व इनके सेवादार सहयोगियों को जाते देखा।
पता चला कि ये गाँव की देवी को भेंट के लिए जा हैं। यहाँ गाँवों के वार्षिक उत्सव
की तैयारियां चल रही थी। इस तरह हम भ्यूंडर से होते हुए आगे पुलना गाँव को पार
करते हुए शाम के अंधेरे में गोविंद घाट पहुंचे।
रास्ते के सबक –
यात्रा के दौरान हम साप्ताहिक उपवास पर थे। ऐसे में ठंड का सामना
करते-करते चाय का सेवन कुछ ज्यादा कर बैठे थे, जिसका खामियाजा वापसी के अंतिम 3-4
किमी में भुगतना पड़ा। साथ ही हम लगा डिहाइड्रेशन का शिकार हो चुके थे। अपने
सहयोगी मित्र के कंधों के सहारे अंतिम पड़ाव पूरा हुआ। अतः ऐसे सफर में आहार और जलपान के
संतुलन का ध्यान रखना जरुरी है। ऐसे सफर में उपवास जैसे हठयोग को न आजमाएं। हल्का भोजन लेते
रहें। जल-पान में कंजूसी न करें। पसीना बहने के कारण डिहाइड्रेशन से बचने के लिए
नमकीन-मीठी चीजों व तरल पदार्थों का उचित मात्रा में सेवन करते रहें।
अधूरे सफर की दासतान –
सफर में हम कैनी के साथ माज़ा की बड़ी
बॉटल में सरोवर का पवित्र जल भर लाए थे। रास्ते में हमारा बैग बदल गया। जिनके
हाथों यह बैग लगा, रास्ते में वे प्यास लगने पर पीने का पानी समझकर सारा जल पी गए। अतः
हमारा दुर्लभ पावन जल हमारे साथ नहीं था। मन को थोड़ा झटका तो लगा क्योंकि अब
दुबारा तत्काल बापिस जाना संभव नहीं था। इसे दैवी विधान का हिस्सा समझकर मन को यह समझाकर संतोष किए कि भीड़
के साथ यात्रा में कुछ अधूरापन रह गया, जिसके लिए अब अगले वर्ष सरोवर की एक ओर
यात्रा करनी होगी। इस तरह संतप्त मन को समझाकर शांत किए। लेकिन यात्रा का अधूरापन मन में गहरा समा गया था।
हेमकुंड का एकला अभियान –
सो ऐसा संयोग अगले वर्ष
सितम्बर 2013 में बना। 4-6 बंधुओं को इसका निमंत्रण देने के बावजूद अंत तक जब कोई
तैयार नहीं हुआ तो हम अकेले ही हेमकुंड साहिब के लिए चल
पड़े। पिछली यात्रा का अनुभव साथ में था। जाते हुए हम जाम व भीड़ के चलते जोशीमठ गुरुद्वारे में रुके। यहाँ की सुंदर
लोकेशन और उमदा व्यवस्था हमें भा गई। अगले दिन हम जीप से गोविंदघाट उतरे और वहाँ से
सीधे पुल पार करते हुए उस पार पहुँच गए। रास्ते में पंजाब से दो सिक्ख भाई यात्रा
के हमसफर बने।
रास्ते में जून 2013 की त्रास्दी का मंजर साफ दिखा। गुरुद्वारे के पास
के पार्किंग क्षेत्र के कुछ अवशेष ही शेष बचे थे। नीचे हेलीपेड़ गायब था। पुलना
गाँव दो तिहाई बाढ़ की गाद से भरा था।
भ्यूंडर गांव का नामों निशान मिट चुका था।
अब यह मार्ग देवदार के पनप रहे घने जंगल से होकर गुजर रहा था। हेमगंगा के किनारे का 3-4
किमी रास्ता गायब था। अब रास्ता कागभुशुंडी से आ रही नदी से उस पार होकर दांईं ओर
से जंगल से होकर जा रहा था। आगे की यात्रा लगभग पिछले बर्ष के ही क्रम में रही। इस
बार पावन सरोवर के जल के साथ हम बापिस आए। अपना बेग किसी को थमाने की गलती इस बार
नहीं किए।
यात्रा के सबक –
एकाकी
भ्रमण का अलग ही रोमाँच रहता है। लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ अपने शरीर की फिटनेस और
मन की अगाध आस्था के बल पर ही किया जा सकता है। इस बार सरोवर का पावन जल हमारे साथ
था,
लेकिन घाघरिया से वापस उतरते समय हमारे पैर जबाव दे
रहे थे। हमारे दोनों पंजाबी साथी आगे बढ़ चुके थे। हम घाघरिया के नीचे जंगल में
एकदम अकेले पड़ चुके थे। पैर
काँप रहे थे। किसी तरह इनको घसीटते हुए, पीठ के रक्सैक को ढोते हुए हम आधा जंगल
ही पार कर पाए। रास्ते में पत्थरों पर रुककर भगवान को याद करते रहे। कोई भी
खच्चरवाला एक सवारी को लेने को तैयार नहीं था। सभी खच्चर लदे हुए थे। अंत में एक
खच्चर बाला एक खाली खच्चर के साथ हमें बिठाने को सहर्ष तैयार हुआ। इसे हम कठिन
परीक्षा के बाद की गुरुकृपा मान रहे थे।
इस
यात्रा का सबक यह रहा कि यात्रा का निर्धारण देखा देखी न करें। अपनी शारीरिक अवस्था,
आयु, फिटनेस आदि का ध्यान रखते हुए कार्यक्रम की प्लानिंग करें। हमारे लिए
उचित था कि घाघरिया से खच्चर पर बैठकर नीचे आते या रात को वहीँ रुककर अगली सुबह
तरोताजा होकर नीचे उतरते।
जो
भी हो हम शाम तक गोविंदघाट पहुँचते हैं। रात्रि को गुरुद्वारे में विश्राम के बाद रिचार्ज
होकर हेमकुंड साहिब की रुहानी यादों के साथ प्रातः अगले गंतव्य की ओर कूच कर जाते
हैं।
यदि इस यात्रा का पहला भाग नहीं पढ़ा हो तो, नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हेमकुण्ड साहिब यात्रा, भाग-1