तीर्थ स्थलों पर सडाँध
मारती गंदगी कब तक होगी बर्दाश्त
तीर्थ हमारी आस्था के केंद्र पावन स्थल हैं। जीवन से
थके-हारे, संतप्त, बिक्षुब्ध
जीवन के लिए शांति, सुकून, सुरक्षा,
सद्गति के आश्रय स्थल। जहाँ हम माथा टेककर, अपना भाव निवेदन
कर, चित्त
का भार हल्का करते हैं, कुछ
शांति-सुकून के पल बिताते हैं और समाधान की आशा के साथ घर बापिस लौटते हैं।
लेकिन जब इन तीर्थ स्थलों पर गंदगी का अम्बार दिखता है, इसके
जल स्रोतों में कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक
व सबसे ऊपर सड़ांध मारती बदबू पाते हैं तो सर चकरा जाता है कि हम यह कहाँ पहुँच
गए। सारी आस्था छूमंतर हो जाती है। जिस स्वच्छता को परमात्मा तक पहुँचने की पहली
सीढ़ी कही गई है उसी का क्रियाकर्म होते देख आस्थावानों की समझदारी पर प्रश्न
चिन्ह खड़े होते हैं। लगता है हम किसी तरह इस सड़ांध से बाहर निकलकर खुली हवा में
सांस लेने के लिए निकल आएं।
अगर हमारे तीर्थ स्थल ऐसी दमघोंटूं सड़ाँध मारती बदबू से
ग्रसित हैं तो कहीं न कहीं मानना पड़ेगा कि हमारा समूह मन गहराई में विषाक्त है।
क्योंकि जो बाहर प्रकट होता है कहीं न कहीं वह हमारे अंतर्मन का ही प्रतिबिम्ब
होता है। समूह मन की ही स्थूल अभिव्यक्ति बाहर घटनाएं होती हैं। गहरी समीक्षा की
जरुरत है कि हमारी आस्था पर,
इसकी गहराई पर अगर हम ऐसे स्थलों को नजरंदाज कर निकल जाते
हैं, या
इनको देख कोई चिंता, दुख, विक्षोभ,
आक्रोश और
समाधान के भाव हमारे मन में नहीं जागते।
इसके लिए किसी एक को दोष देना उचित नहीं होगा। हम सब तथाकथित
आस्थावान, श्रद्धालु
इसके लिए जिम्मेदार हैं, जो
इसके मूकदर्शक बन सड़ांध को पनपते देख रहे हैं। लेकिन सहज ही प्रश्न उठता है अमूक
तीर्थ प्रशासन पर भी, कि
जब श्रद्धालुओं की हजारों लाखों की नित्य दान-दक्षिणा उसकी झोली में गिर रही है, तो
वह जा कहाँ रही है। तीर्थ स्थल के पारमार्थिक भाव में दो-चार सफाई कर्मी तैनात
करने की भी जगह नहीं है जो नित्य तीर्थ स्थल को साफ-सुथरा और चाक-चौबन्ध रख सकें।
ऐसे में तीर्थ स्थल के नेतृत्व पर सीधे उंगली उठती है, जो
बाजिव भी है।
फिर उस क्षेत्र विशेष की पंचायत पर दूसरी उँगली उठती है।
इसके प्रधान से कुछ सवाल करने का मन करता है कि आप कहाँ सोए हैं। अपने गाँव
क्षेत्र के आस्था केंद्र के प्रति आपकी कोई जिम्मेदारी का भाव नहीं है। गाँव
प्रधान के साथ वहाँ के मंत्रीजी से भी प्रश्न लाज्मी बनता है, कि
बोट लेते बक्त जो माथा टेककर यहाँ से चुनाव अभियान शुरु किए थे और क्षेत्र के
विकास के बड़े-बड़े वायदे किए थे,
उसको कब निभाकर भगवान के दरबाजे में अपने ईमान की हाजिरी
देंगे।
स्थूल गंदगी के साथ इन तीर्थ स्थलों पर तीर्थयात्रियों की
आस्था पर डाका डालते भिखारी भी सरदर्द से कम नहीं होते। मोरपंख लेकर झाड़फूंक कर
ज्बरन आशीर्वाद देते भिखारियों को देखकर लगता है कि क्यों नहीं ये पहले अपनी
मनोकामना पूरी कर लेते। श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी करने का ठेका लेकर क्यों
उनके चैन में खलल डालते रहते हैं। एक चाय के लिए 10 रुपए माँगते बाबा को देखकर
आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति दिन भर में कितनी चाय पी सकता है। भूत की तरह पीछे
पड़कर भक्तों से दक्षिणा बटोरती,
मातारानी की पालकी सजाई आस्था की डाकिनियोँ का एक अलग
सरदर्द है,
जिसे भुक्तभोगी ही जानता है।
तीर्थ प्रशासन, गाँव प्रधान, स्थानीय
विधायक के साथ हम सभी श्रद्धालुओं-आस्थावानों का भी कर्तव्य बनता है कि मिलजुलकर
तीर्थ स्थलों को इस सड़ाँध से बाहर निकालने का रास्ता ढूंढें। तीर्थ स्थलों में
कूड़ा-कचरा, गंदगी
पनपने न पाए, यह
सुनिश्चित करें। तीर्थ की स्वच्छता मन की शांति-स्थिरता की पहली शर्त है। मंदिर
परिसर एवं इसकी राह में कोई भिखारी, झाड-फूंक करता
औझा एवं आस्था में खलल डालते बिजातीय तत्वों को न पनपने दिया जाए। तभी तीर्थ
स्थलों की पावनता बनी रहेगी,
वे शांति-सुकून देने वाले आस्था के समर्थ केंद्र बने
रहेंगे और मानव मात्र का त्राण-कल्याण करने वाली धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना के संवाहक
बने रहेंगे।
अन्यथा आस्था संकट से जूझ रहा जमाना और अंधकार में डूबने
के लिए अभिशप्त रहेगा। धर्म-अध्यात्म की प्रासांगिकता,
वैज्ञानिकता, व्यवहारिकता
प्रश्नों के घेरे में रहेगी। हम पुण्य-सद्गति की जगह पाप-दुर्गति के भागीदार बन
रहे होंगे। सबसे ऊपर वहाँ जाकर शांति-सुकून की तलाश में जा रहा हर व्यक्ति ठगा सा
महसूस करेगा। और यदि हम मिलजुलकर इसके उपचार में असमर्थ हैं या हमें इसके लिए
फुर्सत नहीं हैं तो फिर तैयार रहें प्रकृति के, दैव के आत्यांतिक
न्याय विधान को, महाकाल
के अवश्यंभावी परिवर्तनचक्रधारी प्रकोप के लिए जो हर तरह की जड़ता,
हठधर्मिता, लोभ-मोह-अहं-दंभ
ग्रसित मानवीय मूढता-मूर्खता एवं बेहोशी-दुर्बलता का जडमूल परिष्कार-उपचार करना
भली भांति जानता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें