हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी एवं लोक भाषा के संदर्भ में
संवाद का सेतु - भाषा मनुष्य मात्र एवं प्राणी मात्र के बीच संवाद का सेतु है। हम भाषा के माध्यम से अपने भाव एवं विचारों को अभिवयक्त करते हैं, दुनियाँ संपर्क साधते हैं, दूसरों से जुड़ते हैं और परिवार-समाज का ताना-बाना बुनते हैं। इस तरह सभ्यता-संस्कृति की विकास यात्रा आगे बढ़ती है। जीवन मंथन से निकले सार को, शोध-अनुसंधान के निष्कर्षों को भाषा के माध्यम से ही व्यक्त कर इन्हें जनसुलभ बनाते हैं। भारतीय संदर्भ में संवाद एवं शोध-अनुसंधान की बात करें, तो हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और लोकभाषा पर चर्चा समाचीन हो जाती है।
हिंदी – एक अद्भूत एवं विल्क्षण भाषा है। अपनी अंतर्निहित विशेषताओं के कारण हिंदी को देश की लिंक या संपर्क भाषा कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। स्वतंत्रता संग्राम के दौर की यह संपर्क भाषा रही। गैर-हिंदी भाषी नेता तक इसकी पैरवी करते रहे। आज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी की पुण्य तिथि है, गांधीजी स्वयं आजादी के बाद इसको राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे। लेकिन एक वर्ग के उग्र व हिंसक विरोध के चलते यह राष्ट्रभाषा न बन सकी और राजभाषा मात्र बनकर रह गई। हालाँकि विरोध के स्वर धीरे-धीरे धीमे पड़ रहे हैं। आज वैश्वीकरण के दौर में हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी है और फिल्म, विज्ञापन तथा सोशल मीडिया के माध्यम से आज यह देशव्यापी प्रसार पा चुकी है। आप काश्मीर से कन्याकुमारी तक, राजस्थान से अरुणाँचल तक कहीं भी चले जाएं, हिंदी भाषा के आधार पर अपना काम चला सकते हैं। बोलने या लिखने में कुछ संकोच या दिक्कत होती हो, तो बात दूसरी है, अन्यथा हिंदी को समझते लगभग सभी लोग हैं।
हिंदी – एक अद्भूत एवं विल्क्षण भाषा है। अपनी अंतर्निहित विशेषताओं के कारण हिंदी को देश की लिंक या संपर्क भाषा कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। स्वतंत्रता संग्राम के दौर की यह संपर्क भाषा रही। गैर-हिंदी भाषी नेता तक इसकी पैरवी करते रहे। आज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी की पुण्य तिथि है, गांधीजी स्वयं आजादी के बाद इसको राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे। लेकिन एक वर्ग के उग्र व हिंसक विरोध के चलते यह राष्ट्रभाषा न बन सकी और राजभाषा मात्र बनकर रह गई। हालाँकि विरोध के स्वर धीरे-धीरे धीमे पड़ रहे हैं। आज वैश्वीकरण के दौर में हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी है और फिल्म, विज्ञापन तथा सोशल मीडिया के माध्यम से आज यह देशव्यापी प्रसार पा चुकी है। आप काश्मीर से कन्याकुमारी तक, राजस्थान से अरुणाँचल तक कहीं भी चले जाएं, हिंदी भाषा के आधार पर अपना काम चला सकते हैं। बोलने या लिखने में कुछ संकोच या दिक्कत होती हो, तो बात दूसरी है, अन्यथा हिंदी को समझते लगभग सभी लोग हैं।
हिंदी का विश्वव्यापी प्रसार - अपनी अंतर्निहित विशेषताओं के कारण, यह आज
देश ही नहीं विदेशों में तेजी से विस्तार पा रही है। कितने विश्वविद्यालयों में
हिंदी पढ़ाई जा रही है। फिजी जैसे देश की हिंदी राज भाषा है। कई देशों में प्रवासी
भारतीयों की यह लोकप्रिय भाषा है। आश्चर्य नहीं कि हिंदी विश्व की शीर्ष चार भाषाओं में
शुमार है। और एक आँकलन तो यहाँ तक कहता है कि आने वाले समय में हिंदी चीन की मेंडरीन
भाषा को पीछे छोड़ते हुए विश्व की नम्बर एक भाषा बनने जा रही है।
अंतर्निहित विशेषता का मूल आधार है – इसका लचीलापन, इसकी पाचन
शक्ति और सरलता। पारसी
हों या अंग्रेजी अथवा क्षेत्रीय भाषाएं, जिसके भी यह संपर्क में आती गईं, सभी के
उपयोगी शब्द समाहित करती गई। हिंदी भाषी प्राँतों में इसके अलग-अलग स्वरुप
मिलेंगे। अगर आप हिंदी के समाचार पत्र उठाकर देखेंगे तो हिंदी भाषी प्राँतों में
हिंदी के भिन्न-भिन्न रुप मिलेंगे। अर्थात, हिंदी देश काल परिस्थिति के अनुरुप
खुद को ढ़ाल लेती है। मेट्रोज में अंगेजी के साथ मिलकर खिचड़ी भाषा हिंग्लिश का
विकृत रुप भी आप देख सकते हैं।
हिंदी की शक्ति का स्रोत इसका संस्कृत मूल है। हिंदी में संस्कृत मूल
के तत्सम, तद्भव शब्दों की भरमार है। संस्कृत को देवभाषा कहा गया है। राष्ट्र की
आत्मा इसमें वास करती है। श्री अरविंद के शब्दों में संस्कृत भारतीय ह्दय की कूँजी
है। हर शुभ कार्य का आदि यहाँ किसी संस्कृत मंत्र से होता है, और अंत शांतिपाठ मंत्र से।
वैदिक परम्परा में व्यैक्तिक उपासना हो या पारिवारिक यज्ञ या षोड्श संस्कार, अर्थात्
सामाजिक पर्व-त्यौहार, संस्कृत हर स्तर पर अभिन्न घटक है। फिर आज के कम्पयूटर युग में संस्कृत को
सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। विश्व-ब्रह्माण्ड का सकल
ज्ञान-विज्ञान इसमें समाहित है। आश्चर्य नहीं कि विदेश में इस पर गंभीर
शोध-अनुसंधान चल रहे हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे यहाँ संस्कृत को लेकर शोध
की वह गंभीरता नहीं है। लोकस्तर पर इसको लेकर गंभीर उदासीनता का भाव है। राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जिस तरह से इस दिशा में ठोस काम कर रहा है, इसके सुनियोजित प्रयासों से इस
दिशा में गति आएगी, ऐसा हमारा विश्वास है। हमारा विचार है कि किसी भी
ज्ञान-विज्ञान की धारा का शोध-अनुसंधान बिना संस्कृत के अधूरा है। अगर आपको विषय की गहराई
में उतना है, उसका समग्र अनुसंधान करना है तो संस्कृत साहित्य में डुबकी लगानी
पड़ेगी।
जब हम शोध-अनुसंधान व ज्ञान के प्रसार
की बात कर रहे हैं तो हमारे विचार से हिंदी के साथ अंग्रेजी पर भी थोड़ा प्रकाश
डालना जरुरी हो जाता है।
अंग्रेजी, बाहरी दुनियाँ से लिंक की सर्वसुलभ भाषा - आज का यह सत्य है कि अंग्रेजी
विश्व की सबसे अधिक बोले जाने वाली प्रथम तीन भाषाओँ में एक है। चीन की मेंडरीन व
स्पेनिश के बाद अंग्रेजी का स्थान आता है। अगर हम कोई शोध करते हैं और इसका विश्वव्यापी प्रसार करना हो, या हमें भारत के बाहर कदम रखना हो तो लिंक भाषा के रुप
में अंग्रेजी हमारे लिए सर्वसुलभ है। कुछ हिंदी भाषी अंग्रेजी के प्रति घृणा व विद्वेष
का भाव रखते हैं, जो हमारे विचार से उचित नहीं है। आपसी संवाद और आधुनिक
ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रुप में इसका अपना महत्व है। देश में ही गैर हिंदी भाषी
अंग्रेजी बोलने वालों तक पहुँचने के लिए अंग्रेजी एक सेतु का काम करती है।
फिर कितनी ही भारतीय मेधाओं के श्रेष्ठतम् कार्य अंग्रेजी भाषा में सम्पन्न हुए हैं। कल्पना कीजिए, यदि स्वामी विवेकानन्द को
अंग्रेजी न आती होती, तो क्या वे भारतीय धर्म-अध्यात्म का उद्घोष विश्व धर्मसभा
में कर पाते। यदि श्रीअरविंद अंग्रेजी न जानते तो उनकी कालजयी रचना सावित्री सामने
आ पाती। बैसे ही अंग्रेजी ज्ञान के बिना इसकी कालजयी रचनाएं, बिना अनुवाद के हम तक
कैसे पहुँच पाती, जिनको पढ़कर हम आज ज्ञान के सागर में गहरी डुबकी का आनन्द ले
पाते हैं। इस संदर्भ में तो जितनी अधिक भाषाओं को हम सीख सकें उतना ही वेहतर है, लेकिन हमारे सिखने की अपनी सीमाएं हैं।
लेकिन अपनी क्षेत्रीय भाषा, मातृभाषा, लोकभाषा के प्रति तो अपना अनिवार्य कर्तव्य बनता है। क्योंकि लोकमानस से संवाद एवं लोकसाहित्य-संस्कृति में निहित ज्ञान-विज्ञान के अनुसंधान का यही माध्यम है। लेकिन आज नई पीढ़ी अपनी लोक भाषा से अलग हो रही है। घर पर बड़े उनसे हिंदी में बात करते हैं और
स्कूल में टीचर अंग्रेजी में। यह स्थिति प्रायः हर प्राँत की है। हिंदी की आढ़ में अपनी
देशी भाषा की उपेक्षा हो रही है और अंग्रेजी की आढ़ में हिंदी की। इस तरह के दबाव
में कई क्षेत्रीय भाषाएं विलुप्ति के कागार पर हैं। परिणामस्वरुप नई पीढ़ी अपने
लोक साहित्य के साथ लोक संस्कृति से कटती जा रही है, जो चिंता का विषय है। यदि
किसी क्षेत्र की लोक भाषा लुप्त होती है, तो उस क्षेत्र की संस्कृति में निहित
पूरा इतिहास एवं ज्ञान-विज्ञान लुप्त हो जाता है। जो भी व्यक्ति लोक भाषा व लोक संस्कृति को जिंदा
रखने के लिए कार्य कर रहे हैं, उनके शोध प्रसाय सर्वथा वंदनीय हैं औऱ नई
पीढ़ी के लिए प्रेरक हैं। ऐसे प्रयासों को हर स्तर पर अधिक से अधिक प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
सारतः - 21वीं सदी में हिंदी का भविष्य तो उज्जवल दिखता है। देश के यशस्वी
प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र सभा में हिंदी का ढंका बजा चुके हैं। फिर हिंदी
बाजार की भाषा बन चुकी है। सारे अबरोधों को पार करते हुए यह विश्व की नम्बर एक भाषा
बनने की ओर अग्रसर है। प्रश्न है कि हमारा हिंदी के प्रति गौरव का भाव कितना जीवंत है, कहीं
हम इसके प्रति हीनता के भाव से ग्रसित तो नहीं हैं, जो प्रायः देखा जाता है। दूसरा - हम अपने शोध के विषय के मूल तक पहुँचने
के लिए संस्कृत को सीखने व इसकी गहराई तक उतरने के लिए कितने सचेष्ट हैं। तीसरा - अपने शोध को विश्वव्यापी विस्तार देने
कि लिए हम अंग्रेजी सीखने के लिए कितने तत्पर हैं। चौथा – हम अपनी लोक भाषा, लोक संस्कृति को जीवंत बनाए रखने के
लिए कितना जागरुक और सक्रिय हैं।
निष्कर्षतः, हमारे विचार से, जिस तरह से देवप्रयाग के पावन संगम पर भगरथी,
अलकनंदा, मंदाकिनी और कितनी ही हिमनद की धाराओं का संगम गंगाजी का रुप ले आगे बढ़ता है और अपनी
शीतलता, निर्मलता और पावनता के साथ देश की जीवन रेखा, संस्कृति की संवाहक बनकर
जनमानस का कल्याण-त्राण करता है। कुछ ऐसे ही इस पावन संगम पर देवभाषा
संस्कृत के साथ विभिन्न भाषाओं का जो समागम हो रहा है, इससे निस्सृत ज्ञान गंगा की
पावन धारा देवभूमि का नाम सार्थक करेगी और ध्वंस, अशांति और समस्याओं से भरे आज के युग में शांति, सद्भाव, सृजन और समाधान का दिग-दिगन्त व्यापी संदेश
प्रसारित करेगी। (राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, श्रीरधुनाथ कीर्ति परिसर, देवप्रयाग
में राष्ट्रीय संगोष्ठी (30.01.2017) में प्रस्तुत विचार)
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