बुधवार, 31 अगस्त 2016

मेरा गाँव, मेरा देश - घाटी की बदलती तस्वीर-1


पारम्परिक खेती से उन्नत बागवानी की ओर बढ़ते कदम
 


हरिद्वार में रहते हुए, उत्तराखण्ड को नजदीक से देखने समझने का मौका मिलता है। घूमने के शौक के चलते यहाँ गढ़वाल औऱ कुमाऊँ खण्ड के कई दर्शनीय स्थलों को देख चुका हूँ। इस क्रम के प्राँत के प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत से आत्मीय लगाब हो चुका है। हिमाचल से होने के नाते सहज ही इन यात्राओं के दौरान दो पहाड़ी क्षेत्रों का एक तुलनात्मक अध्ययन चलता रहता है।
इस अध्ययन में एक बात साफ उभर कर आती है, मन को कचोटती है, और एक शोध प्रश्न बनकर सामने खड़ी होती है कि हिमाचाल की तर्ज पर उत्तराखण्ड का विकास क्यों नही हो पाया है। एक जैसी भोगौलिक परिस्थितियों में, प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद चीजें इतनी भिन्न क्यों हैं। हिमाचल के दूर दराज के गाँवों में अभी भी लोग बसे हैं व बस रहे हैं। अंतिम छौर तक बिजली, पानी, सड़क की व्यवस्था के साथ विकास के न आयाम जु़ड़ रहे हैं। दूसरी ओर उत्तराखण्ड के गाँव उजड़ रहे हैं, पलायन का गंभीर दंश झेल रहे हैं। अभी लगभग 40 फीसदी आवादी घर, गाँवों व खेतों को छोड़ चुकी है और (देहरादून, हल्द्वानी, दिल्ली जैसे) मैदानी शहरों में बस चुकी है।
इसका एक कारण तो शायद यह रहा कि उत्तराखण्ड शुरु से उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। बहुत बड़ा प्रांत होने के नाते सरकार इस दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र का समुचित ध्यान न दे पायी व उपेक्षा का शिकार रहा। 9 नवम्बर, 2000 में यह देश का 27 वाँ प्राँत बनता है। स्वतंत्र प्रांत का दर्जा होने के बाद उम्मीद थी कि तस्वीर बदलेगी। लेकिन पूर्ण प्राँत बनने के बाद भी राजनैतिक अस्थिरता का दंश झेलता यह प्रांत विकास की लय नहीं पकड़ पाया है। बाकि शायद दूरदर्शी नेतृत्व का अभाव भी इसका एक अहम् कारण माना जा सकता है।
जबकि गंगा और यमुना नदियों का उद्गम स्थल, चारों धामों का वास, कितने ही वैदिक ऋषियों की तपस्थली रहा यह क्षेत्र बहुत ही समृद्ध आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत लिए हुए है। शिव-शक्ति की लीलाभूमि यह क्षेत्र रामायण, महाभारत कालीन घटनाओं का साक्षी रहा है। महाकवि कालीदास की कालजयी रचनाओं नागाधिराज देवात्मा हिमालय यहीं विराजमान हैं। प्रांत प्रतिभा की खदान रहा है और पर्यावरण आंदालनों की जन्मभूमि। सेना में आवादी के हिसाब से सबसे अधिक जांबांज देने वाला यही प्राँत है। इसके साथ कितने ही साहित्यकारों, पत्रकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की यह उर्बर भूमि है।
      उत्तराखँड के साथ सट्टा हिमाचल आधुनिक प्राँत भी एक पहाड़ी प्रांत है। इसको गढ़ने का श्रेय डॉ. यशवंत सिंह परमार को जाता है। 25 जून, 1971 को यह देश का अठाहरवाँ प्रांत बनता है। स्थापना के समय यह देश के सबसे पिछड़े प्राँतों में से एक था, किंतु डॉ. परमार की दूरदर्शी योजनाओं के बल पर आज यह देश में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाला प्रांत है। प्रांत के शुरुआती दौर में दो हार्टिक्लचर एवं कृषि विश्वविद्यालय स्थापित हुए। इसके साथ सरकारी प्रोत्साहन ने जहाँ किसानों की खेती के साथ बागवानी को आजमाने के लिए प्रेरित किया, वहीं किसान धीरे-धीरे खुद ही इतना जागरुक होते गए, कि विश्व की आधुनिकतम तकनीकों को अपने दम पर अपनाते हुए आज यहाँ के बागवान आर्थिक प्रगति के नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं। यहाँ 69 फीसदी जनता कृषि से जुड़ी है, जो तेजी से सब्जी उत्पादन से लेकर बागवानी अपना रहे हैं
 
      इसके साथ पारम्परिक खेती धीरे-धीरे पीछे छूट रही है। आधुनिक जीवन शैली के साथ खर्चों में जो इजाफा हुआ है, इसको पूरा करने के लिए किसान खेती से अधिकतम आमदनी व मुनाफा चाहता है। इस आवश्यकता ने क्षेत्र के प्रगतिशील किसानों को नगदी फसल (कैश क्रोप) को अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिसमें तमाम तरह की सब्जियाँ आजमायीं जा रही हैं। टमाटर, मटर, शिमला मिर्चगोभी से लेकर आइसवर्ग, ब्राउन कैबेज, ब्रोक्ली जैसी इग्जोटिक सब्जियाँ किसान उगा रहे हैं। तीन माह में ये किसानों की झोली भर देती हैं। वेरोजगार पढ़े-लिखे युवाओं के लिए यह एक बहुत राहत देता आजीविका का साधन सावित हुआ है। पहले जहाँ रोजगार न मिलने से कुँठित युवा नशा, झगड़े से लेकर आवारागर्दी में शामिल रहते थे, आज वे अपने खेतों में खून पसीना वहा रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि कैश क्रोप के रुप में सब्जी उत्पादन क्षेत्र में खासा लोकप्रिय हो चुका है।
     सब्जी के साथ फलों की किस्मों को आजमाया जा रहा है। प्लम, नाश्पाती से लेकर चैरी व सेब के बगानों से पहाडियां व घाटियाँ गुलजार हो रही हैं। शिमला आज हिमाचल में फल उत्पादन का अग्रणी जिला है। यहाँ के प्रगतिशील किसान-बागवान आधुनिकतम तकनीकों को अपनाते हुए रिकार्ड उत्पादन के साथ कृषि-बागवानी में क्रांतिकारी प्रयोग कर रहे हैं और इसकी व्यार प्रांत के अन्य पहाड़ी जिलों में पहुंच चुकी है, जिसमें सेब उत्पादन सबसे प्रमुख है। कुल्लू सेब उत्पादन में शिमला के बाद एक अ्रणी स्थान रखता है।
      फल उत्पादन ने कुल्लू-मानाली घाटी में पारम्परिक खेती को प्रभावित किया है। यहाँ की लोअर बैली से लेकर अपर बैली तक जहाँ पहले धान की खेती बहुतायत में होती थी, जहाँ का ब्राउन राइस (जाटू) अपने स्वाद, सुगंध व पौष्टिकता के लिए प्रख्यात था, वह इस परिवर्तन की लहर में धीरे-2 बिलुप्त हो रहा है। आज धान के खेतों (सेरी) में सेब के बागानों को पनपते देखा जा सकता है। बाकि खाली स्थानों पर सब्जियां उगाई जा रही हैं। कुल्लू से मानाली के सफर के दौरान विशेष कर लेफ्ट बैंक में इस परिवर्तन सत्य का विहंगावलोकन सहज ही किया जा सकता है।
सेब के उत्पादन में भी गोल्ड़न, रेड़, रॉयल जैसी किस्मों से आगे प्रगतिशील बागवान रेड चीफ, सुपर चीफ, जैरोमाइन, रेड विलोक्स, गाला जैसी आधुनिकतम किस्मों क आजमा रहे हैं। इनके साथ किसानों की आय में आश्चर्यजनक  इजाफा होना शुरु हो गया है। पहले जो सेब मार्केट में 70-80 रुपए प्रति किलो तक का अधिकतम दाम देता था, वह आज 140-160 रुपय तक प्रति किलो आमदनी दे रहा है। हालाँकि अभी शुरुआत भर हुई है, लेकिन इसे क्षेत्र के फल उत्पादन में एक क्रांतिकारी पहल के रुप में देखा जा सकता है, जिसने क्षेत्र के बागवानों के प्रयासों में कल्पना के पंख लगा दिए हैं। श्चर्य नहीं इससे क्षेत्र में पढ़े-लिए युवाओं का रुझान खेती-बागवानी ओर बढ़ा है। यह लहर आर्थिक विकास की एक नयी लहर के रुप में अन्य सेब उत्पादक क्षेत्रों को तेजी के साथ अपने आगोश में ले रही है। सेब के साथ नाशपाती, प्लम, जापानी फल आदि की उन्नत किस्मों को भी आजमाया जा रहा है।
 शुरुआत हो चुकी है, अगले 5-7 बर्षों में इन प्रयोगों के व्पायक असर दिखने लगेंगे। विकास की अंगड़ाई ले रहा यह क्षेत्र सुधरे जीवन स्तर को सुनिश्चित करेगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है। आशा है कि विकास की यह लहर हिमाचल के साथ पड़ोसी प्राँत उत्तराखण्ड में भी व्यापक स्तर पर प्रवेश करेगी। प्रांत के शिक्षित युवा, प्रगतिशील किसान-बागवान की भूमिका में प्राँत की उर्बर भूमि की महत्ता समझेंगे व अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी खून-पसीने की मेहनत के साथ प्राँत व देश की आर्थिक समृद्धि में एक नया अध्याय जोडेंगे।

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