इतना तो धीरज रखना होगा, इंतजार करना होगा
उंगलियाँ उठ रही हैं, फिर नियत पर आज
नहीं कोई बात नयी, तल्खी जानी-पहचानीं,
नहीं कुछ नया, बक्रता शाश्वत, कुचाल नहीं अनजानी।
खुद से ही है हमें तो शिकायत-शिक्वे गहरे कल के,
हर रोज ठोक पीट कर, कर रहे
हैं दुरुस्त खुद के तंग दरवाजे,
ऐसे में स्वागत है इन प्रहारों का, औचक ही सही,
ये प्रहार तो हमें लग रहे हैं, प्रसाद ईश्वर के।
लेकिन यह आलाप, प्रलाप, विलाप क्यों इतना,
गर सच के पक्ष में है जेहन, तो फिर तुम्हारे सांच
को आंच कैसी,
क्यों नहीं छोड़ देते कुछ बातें काल की झोली में,
अग्नि परीक्षा से तप कर, जल कर, गल कर,
आएगा सच
निखर कर सामने।
सच हमारा भी और सच तुम्हारा भी,
सच के लिए इतना तो धैर्य रखना होगा,
इतना तो इंतजार करना होगा।
मात्र मेरी सफाई से और तुम्हारी दुहाई से तो काम चलने
वाला नहीं,
काल के गर्भ में हैं जबाव सवालों के, सत्य के,
न्याय के, इंसाफ के,
इसके पकने तक कुछ तो धैर्य रखना होगा, इंतजार
करना होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें