रविवार, 31 जनवरी 2016

यात्रा वृतांत - शिमला से कुल्लू वाया जलोड़ी पास


शिमला की एप्पल बेल्ट का एक यादगार, रोमांचक सफर

शिमला, प्रदेश की राजधानी होने के नाते हमारा बचपन से ही आना जाना रहा है। यहां जाने का कोई मौका हम शायद ही चूके होंशुरु में अपने स्कूल, कालेज के र्टिफिकेट इकट्ठा करने, तो बाद में एडवांस स्टडीज में शोध-अध्ययन हेतु। यहां घूमने के हर संभव मौकों पर शिमला शहर के आसपास के दर्शनीय स्थलों को अवश्य एक्सप्लोअर करते रहे। लेकिन शिमला के असली सुकून और रोमांच भरे दर्शन तो शहर से दूर-दराज के ग्रामीण आंचलों में हुए, जहाँ किसान अपनी पसीने की बूंदों के साथ माटी को सींच कर फल-सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में जमींन से सोना उपजा रहे हैं।

पिछले ही वर्ष शिमला के कोटखाई इलाके में ढांगवी गांव में प्रगतिशील बागवान रामलाल चौहान से मिलने का सुयोग बना था, जिसमें यहां चल रहे सेब-नाशपाती जैसे फलों की उन्नत प्रजातियों के साथ सफल प्रयोग व इनके आश्चर्यजनक परिणामों को देखने का मौका मिला। सुखद आश्चर्य हुआ था देखकर कि इनके बगीचों में वैज्ञानिक की प्रयोगधर्मिता और दत्तचित्तता के साथ विश्व की आधुनिकतम फल किस्मों को आजमाया जा रहा है। वर्षों की मेहनत के इनके परिणाम भी स्पष्ट थे। राष्ट्रीय स्तर पर 2010 का फार्मर ऑफ द ईयर का पुरस्कार के साथ प्रदेश के कई पुरस्कार इनकी झोली में हैं। 


प्रदेश के बागवानों सहित हॉर्टिक्लचर यूनिवर्सिटी के छात्रों एवं वैज्ञानिकों के लिए बगीचे में चल रहे प्रयोग गहरे शैक्षणिक अनुभव से भरे रहते हैं। इस दौरान से की रेड चीफ, सुपर चीफ, जैरोमाईन, रेड विलोक्स जैसी वैरायटीज से परिचय हुआ। इसी तरह नाशपाती की का्रेंस, कांकॉर्ड जैसी विदेशी किस्मों को देखने व स्वाद चखने का मौका मिला था।
आश्चर्य नहीं कि आज शिमला सेब की आधुनिकतम खेती की प्रयोगशाला है, जिसका संचार पूरे प्रदेश व देश के अन्य क्षेत्रों में हो रहा है। प्रदेश के अन्य स्थलों के बागवान भी इसकी व्यार से अछूते नहीं हैं। सेब उत्पादन के संदर्भ में यह ब्यार एक क्रांति से कम नहीं है। इसके चलते हम जिन विदेशी सेबों को मार्केट में 200 से 300 रुपय किलो खरीदते हैं, वे आगे बहुत बाजि दामों मेें उलब्ध होंगे। और किसानों की आर्थिक स्थिति भी इससे निश्चित ुप से सुदृढ़ होगी।



सेब का संक्षिप्त इतिहास – हिमाचल प्रदेश में सेब की उन्नत किस्मों की व्यावसायिक तौर पर शुरुआत का श्रेय शिमला के कोटगढ़ क्षेत्र को जाता है। जहाँ 1918 में अमेरिकन मिशनरी सत्यानंद स्टोक्स में सेब की रेड डिलीशियस और रॉयल प्रजातियों को बारूवाग गांव में रोपा था। इससे पूर्व शौकिया तौर पर कुल्लू के मंद्रोल, रायसन स्थान पर अंग्रेज कैप्टन आरसी ली ने 1870 में अपना सेब बाग लगाया था। गौरतलब हो कि भारत में सबसे पहले सेब को अंग्रेज, लीवरपूल से मंसूरी 1830 में लाए थे। इसके बाद दक्षिण के हिल स्टेशन ऊटी मे लगाए गए। आज हि.प्र. में शिमला सहित कुल्लू, किन्नौर, लाहूल-स्पीति, चम्बा, सिरमौर, मंडी जिलों में सेबों का उत्पादन होता है। भारत में सेब उत्पादक प्रांतों में काश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड क्रमशः प्रमुख हैं।



इस बार भी अपने बागवान भाई के साथ इस क्षेत्र में जाने का मौका मिला। रात को बस में हरिद्वार से निकले। चण्डीगढ़-काल्का से होते हुए सुबह पांच बजे हम शिमला पहुंचे। आगे का सफर भाई के साथ गाड़ी में पूरा किया। शिमला की सुनसान सड़कें अपना पुराना परिचय दे रही थीं। जाखू की सबसे ऊँची चोटी पर बजरंगबली सफर का आशीर्वाद दे रहे थे। शिमला पार करते ही रास्ते में ग्रीन वेली से गुजरना हमेशा ही बहुत सकूनदायी रहता है। एशिया का यह सबसे घना देवदार का जंगल है। इसके बाद लोकप्रिय पर्यटन स्थल कुफरी आता है। इस सीजन में दशक की सबसे कम बर्फवारी हुई है। (हालाँकि बाद में फरवरी माह में इस क्षेत्र में जमकर बर्फवारी हुई है) इसके बावजूद सड़क के किनारे छायादार कौनजमी र्फ की सफेद चादर ओढ़े हुए थे। इसके आगे ठियोग से होते हुए कुछ ही घंटों में हम कोटखाई घाटी में प्रवेश कर चुके थे।

कोटखाई, शिमला में सेब का एक प्रमुख गढ़ है। यहां के प्रगतिशील बागवानों का सेब उत्पादन को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान रहा है। पिछले ही वर्ष हम यहां रामलाल चौहान से मिल चुके थे। इस बार दूसरे युवा प्रगतिशील बागवान संजीव चौहान से मिलने का मौका मिला। मुख्य मार्ग से छोटी संकरी सड़क के साथ चढ़ाईदार रास्ते से हम ऊपर बढ़ रहे थे। दोनों ओर बहुत ही खुबसूरती से तराशे गए सेब के बगीचे दिखे। बगीचों के बीच में सुंदर, भव्य भवन। लाल व हरी छत्तों से ढकी कई आलीशान कोठियों के दर्शन यहां की समृद्धता को दर्शा रहे थे।

ऊपर मुख्य मार्ग तक पहुंचने के बाद फिर एक तंग किंतु पक्की सड़क के साथ आगे बढ़ते रहे। देवदार के घने जंगल को पार करते हुए अंततः हम बकोल गांव में पहुंच चुके थे। यहां हर घर गांव तक सड़कों का जाल बिछा दिखा। बागों से सेब की ढुलाई की दृष्टि से यह सही भी है और जरुरी भी। राहगिरों से रास्ता पूछते हुए थोड़ी ही देर में हम चौहान परिवार के आंगन में खड़ थे


अपने बगीचे में कार्य के लिए तैयार ट्रेक सूट पहने युवा बागवान संजीव चौहान के सरल, सहज आत्मीय व्यवहार से लगा कि जमीं से जुड़े एक प्रबुद्ध, प्रखर और संवेदनशील किसान से मिल रहे हैं। बातचीत से पता चला कि संजीव शिमला विवि से लॉ, राजनीति शास्त्र व पत्रकारिता की स्नात्कोत्तर पढ़ाई किए हुए हैं। नौकरी की बजाए विरासत में मिली बागवानी को ही अपन कैरियर बनाना बागवानी के प्रति इनके गहरे लगाब को दर्शाता है। बागवानी के प्रति इनका जनून बातों से स्पष्ट झलक रहा था। इसी लग्न और जनून का परिणाम रहा कि संजीव चौहान सेब की नवीनतम जानकारी के साथ सपरिवार अपनी बागवानी की प्रयोगशाला में पिछले दशक से लगे हैं। इसी प्रयोगधर्मिता का परिणाम है कि इनके बगीचे में 25 किस्मों की उन्नत विदेशी सेब लगे हैं। आश्चर्य नहीं कि इनके नाम 52 मीट्रिक टन प्रति हैक्टेयर सेब उत्पादन का रिकॉर्ड दर्ज है, जो अमेरिका और चीन के 30 से 40 मीट्रिक टन उत्पादन से आगे है। संजीव चौहान को राष्ट्रीय स्तर पर 2015 का ेस्ट प्लांट प्रोटेक्शन फार्मर अवार्ड मिल चुका है, जो फल उत्पादन में माटी व पौधों के साथ इनकी गहन संवेदनशील प्रयोगधर्मिता के आधार पर संभव हुआ है।


चौहान परिवार के आत्मीय अतिथि सत्कार के साथ लगा हम अपने ही घर पहुंच गए हैं। गर्म जल में स्नान के साथ सफर की थकान और ठंड से जकड़ी नसें खुल चुकी थी। चाय-नाश्ता के साथ हम तरोताजा होकर अगले सफर की ओऱ चल पड़े।


बकोल गांव को विदाई देते हुए हम आगे सामने की घाटी को पार करते हुए बाघी की ओर बढ़े। रास्ते में रत्नारी गांव के पास से गुजरे, जिसे हाल ही में सबसे स्वच्छ गांव का दर्जा दिया गया है। इसके आगे देवदार के घने जंगलों को पार करते हुए हम बाघी गांव पहुंचे, जिसे हिमाचल का सबसे अधिक सेब उत्पादक क्षेत्र माना जाता है। यहां के आलीशान भवनों, मंहगी गाड़ियों के साथ यहां फल उत्पादन के बलबूते लिख जा रहआर्थिक समृद्धि एक रोमाँचक अध्याय के दर्शन किए जा सकते हैं। 

बाघी से बापसी में नारकण्डा से होकर आगे बढ़े। रास्ते में देवदार के घने जंगलों के बीच बर्फ मिली। सड़के पर मिट्टी बिछाकर गाड़ियों के चलने लायक मार्ग तैयार था। लेकिन ड्राइविंग खतरे से खाली नहीं थी। नए व अनाढ़ी ड्राइवर के बूते यहां का सफर संभव न था। लेकिन हमारे मंझे हुए पहाड़ी सारथी पवन, वायु वेग के साथ बड़ी कुशलतापूर्वक गाढी आगे बढ़ा रहे थे। रास्ते के मनोहारी दृश्यों को हम यथासंभव अपने कैमरे में कैद करते रहे। गंगनचूंबी देवदार के वृक्षों और बर्फ के बीच हम कुछ ही मिनटों में नारकंडा पहुंचे।


नारकंडा, शिमला से 75 किमी दूरी पर 8599 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। शिवालिक पहाडियों से घिरा यह हिल स्टेशन स्कीइंग के लिए प्रख्यात है। रामपुर के लिए यहीं से आगे रास्ता जाता है। देवदार के घने जंगलों के बीच इसका प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। यहां से पहाड़ी के हाटू पीक पर काली माता का प्राचीन मंदिर दर्शनीय है।

नारकंडा से नीचे उतरते हुए हम कुमारसेन से होते हुए आगे बढ़े। यह क्षेत्र भी फल व सब्जी उत्पादन के लिए प्रख्यात है। घाटी के पार सामने की पहाड़ी पर कोटगढ़ के दूरदर्शन हो रहे थे और नीचे वाईं ओर सतलुज नदी। कुमारसेन से वाएं मुडते हुए सतलुज नदी के समानान्तर कुछ किमी के बाद पुल पार किए। अब हम शिमला से कुल्लू जिला में प्रवेश कर चुके थे। एक छोटी नदी की धारा के किनारे संकरी घाटी के बीच आगे बढ़ते गए। रास्ते में आनी पड़ा। यहां से पर चढ़ते हुए, चीड़ के घने जंगलों के बीच हम एकदम किसी दूसरे लोक में खुद को पार रहे थे। ऊंचाई बढ़ने के साथ देवदार के सघन वन आने शुरु हो गए। सही मायने में हम यहां हिमालयन टच को अनुभव कर रहे थे और आगे नई घाटी में प्रवेश कर चुके थे। यहां सेब के गान मिले। कई किमी तक देवदार के जंगलों के बीच बसे यहां के गांव, कस्बों को पार करते हुए यहां के सुंदर एवं रोमांचक घाटी के बीच सफर करते रहे। 


शाम के ढलते ढलते मानवीय बस्ती के पार घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। आगे जलोड़ी पास आने वाला था। चढाईदार घने जंगल को पार करते हुए हम आखिर शाम छः बजे के आस-पास जलोड़ी जोत पर पहुंचे। सामने बर्फीले टीले पर मां काली का मंदिर औऱ दायीं और चाय की दुकान। बायीं और नीचे घाटी में शोजा कस्वा और आगे बंजार, कुल्लू घाटी। यहां मंदिर में माथा नबाते हुए कुछ यहां के सूर्यास्त के दिलकश नजारों को कैद किए। क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा और क्षितिज का अनन्त विस्तार एक दिव्य अनुभूति दे रहा था। र्फीली ठंडी हवा जमाने वाली थी। इसका उपचार ढाबे में गर्मागर्म चाय के साथ करते हुए हम बर्फीले दर्रे के पार शोजा की ओर बढ़ चले। रास्ते में बर्फ के एक बढ़े से ढेले को गाढ़ी पर लाद कर, घर के बच्चों व बढ़ों के लिए इस दर्रे का एक प्राकृतिक उपहार-प्रसाद के रुप में साथ ले जाना न भूले। 


बचपन से जलोड़ी पास के बारे में पिताजी से सुनते आए थे। निरमंड में होर्टिक्लचर विभाग में सर्विस करते हुए वे यहीं से होकर पैदल पार होते थे औऱ फिर घर पहुंचते थे। आज बचपन की किवदंतियों के हिम-नायक के दर्शन के साथ एक चिर आकांक्षित इच्छा पूरी हो रही थी।
 
आगे अंधेरे में बर्फ से ढकी सड़क को पार करते हुए शोजा पहुंचे। आगे संकरी घाटी के बीच सेंज नदी के किनारे आगे बढ़ते गए। पता चला की गलेशियरों से निकली नदी ट्राउट मछलियों का पसंदीदा आशियाना है। और क्षेत्रीय लोगों के लिए एक प्रचलित आहार भी। इसी तरह अंधेरे में घाटी को पार करते हुए जिभ्भी को पार किए। आगे घाटी के पहाड़ी गांव की ात की टिमटिमाती रोशनी के बीच बंजार पहुंचे। इसके बाद नदी पार करते हुए बाली चौकी से होते हुए सैंज नदी के किनारे लारजी पहुंचे। यहां सैंज और व्यास नदी के संगम पर बांध बनाया गया है, जिससे बिजली उत्पादन किया जाता है। 

यहां मुख्य मार्ग में सुरंग को पार करते हुऑउट पहुंचे और बजौरा-भुंतर से होते हुए व्यास व पार्वती नदी के संगम पर पहुंचे। पृष्ठभूमि में पर्वत शिखर पर विराजमान बिजली महादेव के चरणों में स्थित जिया पुल को पार करते कुछ ही मिनट में हम अपने गांव में प्रवेश कर चुके थे। मुख्य मार्ग से कच्ची सड़क से होते हुए घर पहुंचे। सफर कुल मिलाकर बहुत रोमांचक व सुखद रहा। यात्रा की थकान अवश्य हावी हो चुकी थी, लेकिन सफर की रोमांचक स्मृतियां इन पर भारी थी, जिनकी याद आज भी ताजगी भरा रोमांचक अहसास देती हैं।
  

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