बचपन की मासूम यादें और बदलते सारोकार
जिंदगी का प्रवाह कालचक्र के साथ बहता
रहता है, घटनाएं घटती रहती हैं, जिनका तात्कालिक कोई खास महत्व प्रतीत नहीं होता।
लेकिन समय के साथ इनका महत्व बढ़ता जाता है। काल के गर्भ में समायी इन घटनाओं का
अर्थ व महत्व बाद में पता चलता है, जब सहज ही घटी इन घटनाओं से जुड़ी स्मृतियां
गहरे अवचेतन से उभर कर प्रकट होती हैं और वर्तमान को नए मायने, नए रंग दे जाती
हैं। अक्टूबर 2015 के पहले सप्ताह में हुआ अपनी बचपन की क्रीडा-भूमि का सफर कई
मायनों में इसी सत्य का साक्षी रहा।
याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव में पीने
के लिए नल की कोई व्यवस्था नहीं थे। गांव का नाला ही जल का एक मात्र स्रोत था। घर
से आधा किमी दूर नाले तक जाकर स्कूल जाने से पहले सुबह दो बाल्टी या केन दोनों
हाथों में लिए पानी भरना नित्य क्रम था। इसी नाले में दिन को घर में पल रहे
गाय-बैलों को पानी पीने के लिए ले जाया करते थे। नाला ही हमारा धोबीघाट था। नाले
की धारा पर मिट्टी-पत्थरों की दीवाल से बनी झील ही हमारा स्विमिंग पुल। गांव का
वार्षिक मेला इसी के किनारे मैदान में मनाया जाता था। इसी को पार करते हुए हम कितनी
बार दूसरे गांव में बसी नानी-मौसी के घर आया जाया करते थे। बचपन का स्मृति कोष
जैसे इसके इर्द-गिर्द छिपा था, जो आज एक साथ जागकर हमें बालपने के बीते दिनों में
ले गया था।
इसके पानी की शुद्धता को लेकर कोई गिला
शिक्वा नहीं था। कितनी पुश्तें इसका जल पीकर पली बढ़ी होंगी। सब स्वस्थ नीरोग,
हष्ट-पुष्ट थे। (यह अलग बात है कि समय के साथ सरकार द्वारा गांव में जगह-जगह नल की
व्यवस्था की गई। आज तो गांव क्या, घर-घर में नल हैं, जिनमें नाले का नहीं, पहाड़ों
से जलस्रोतों का शुद्ध जल स्पलाई किया जाता है)
इसी नाले का उद्गम कहां से व कैसे होता
है, यह प्रश्न बालमन के लिए पहेली से कम नहीं था। क्योंकि नाला गांव में एक दुर्गम
खाई भरी चढ़ाई से अचानक एक झरने के रुप में प्रकट होता था। झरना कहाँ से शुरु होता
है व कैसे रास्ते में रुपाकार लेता है, यह शिशुमन के लिए एक राज था। बचपन इसी झरने
की गोद में खेलते कूदते बीता। कभी इसके मुहाने पर बसे घराट में आटा पीसने के
वहाने, तो कभी इसकी गोद में लगे अखरोट व खुमानी के पेड़ों से कचे-पक्के फल खाने के
बहाने। और हाँ, कभी जायरु (भूमिगत जल स्रोत) के शुद्धजल के बहाने। झरने से 100-150
मीटर के दायरे में चट्टानों की गोद से जल के ये जायरू हमारे लिए प्रकृति प्रदत
उपहार से कम नहीं थे। गर्मी में ठंडा जल तो सर्दी में कोसा गर्म जल। उस समय यहाँ
ऐसे तीन चार जायरु थे। लेकिन अब एक ही शेष बचा है। सुना है कि बरसात में बाकी भी जीवंत
हो जाते हैं।
झरना जहाँ गिरता था वहाँ झील बन जाती थी,
जिसमें हम तैरते थे। लगभग 300 फीट ऊँचे झरने से गिरती पानी की फुआरों के बीच
सतरंगी इंद्रधनुष अपने आप में एक दिलकश नजारा रहता था। झरने की दुधिया धाराएं व
फुआरें यहां के सौंदर्य़ को चार चांद लगाते थे। गांव वासियों के लिए झरना एक पवित्र
स्थल था, जिसके उद्गम पर झरने के शिखर पर वे योगनियों का निवासस्थान मानते थे व
इनको पूजते थे, जो चलन आज भी पूरानी पीढ़ी के साथ जारी है।
आज हम इसी झरने तक आए थे। घर-गाँव से
निकलने के दो दशक बाद इसके दर्शन-अवलोक का संयोग बना था। अखरोट के पेड़ में सुखते हरे कव्च से झांक रहे पक्के अखरोट
जैसे हमें अपना परिचय देते हुए बचपन की यादें ताजा करा रहे थे। झरने में पानी की
मात्रा काफी कम थी। लेकिन ऊपर से गिरती जलराशी अपनी सुमधुर आवाज के साथ एक जीवंत
झरने का पूरा अहसास दिला रही थी। पता चला की पर्यटकों के बीच आज यह झरना खासा
लोकप्रिय है। हो भी क्यों न, आखिर यह गहन एकांत-शांत गुफा नुमा घाटी में बसा
प्रकृति का अद्भुत नाजारा आज भी अपने आगोश में दुनियां के कोलाहल से दूर दूसरे लोक
में विचरण की अनुभूति देता है। ऊपर क्या है, पीछे क्या है, सब दुर्गम रहस्य की ओढ़
में छिपा हुआ, बालमन के लिए बैसे ही कुछ था, जैसे बाहुबली में झरने के पीछे के लोक
की रहस्यमयी उपस्थिति।
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झरने का घटता हुआ जल स्तर हमें चिंता का
विषय लगा। इसका सीधा सम्बन्ध एक तरफे विकास की मार झेलते प्रकृति-पर्यावरण से है।
पिछले दो दशकों में क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ है, जिसका इस नाले से सीधा
सम्बन्ध रहा। याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव के युवा अधिकाँश वेरोजगार घूमते थे।
शाम को स्कूल के मैदान में सबका जमाबड़ा रहता था। बालीवाल खेलते थे, मस्ती करते
थे। इसके बाद गावं की दुकानों व सड़कों पर मटरगश्ती से लेकिर शराब-नशे का सेवन
होता था। कई बार मारपीट की घटनाएं भी होती थीं। गांव के युवा खेल में अब्बल रहते
थे, लेकिन युवा ऊर्जा का सृजनात्मन नियोजन न होना, चिंता का विषय था। इनकी खेती-बाड़ी
व श्रम में रुचि न के बरावर थी।
लेकिन इन दो दशकों में नजारा बदल चुका है।
बीच में यहाँ सब्जी उत्पादन का दौर चला। तीन माह में इस कैश क्रांपिक से झोली भरने
लगी। गोभी, मटर, टमाटर, गाजर-शलजम जैसी सब्जियों उगाई जाने लगी। इसके अलावा ब्रोक्ली,
स्पाइनेच, सेलेड जैसी विदेशी सब्जियां भी आजमायी गईं।
सब्जियों की फसल बहुत मेहनत की मांग करती
हैं। दिन रात इनकी देखभाल करनी पड़ती है। निंडाई-गुडाई से लेकर समय पर सप्रे व
पानी की व्यवस्था। जल का एक मात्र स्रोत यह नाला था। सो झरने के ऊपर से नाले के
मूल स्रोत से सीधे पाइपें बिछनी शुरु हो गईं। इस समय दो दर्जन से अधिक पाइपों के जाल
इसमें बिछ चुके हैं और इसका जल गांव में खेतों की सिचांई के काम आ रहा है।
स्वाभिवक रुप से झरने का जल प्रभावित हुआ है।
दूसरा सेब की फसल का चलन इस दौरान क्षेत्र
में बढ़ा है। पहले जिन खेतों में गैंहूं, चावल उगाए जाते थे, आज वहाँ सेब के पेड़
देखे जा सकते हैं। कुल्लू मानाली घाटी की अप्पर वेली को तो हम बचपन से ही सेब
बेल्ट में रुपांतरित होते देख चुके थे। लेकिन हमारा क्षेत्र इससे अछूता था। बचपन
में हमारे गाँव में सेब के गिनती के पड़े थे। जंगली खुमानी भर की बहुतायत थी, जो
खेत की मेंड़ पर उगी होती थी। धीरे-धीरे नाशपाती व प्लम के पेड़ जुड़ते गए। लेकिन
आज पूरा क्षेत्र सेब के बागानों से भर चुका है, जिसके साथ यहाँ आर्थिक समृद्धि की
नयी तिजारत लिखी जा रही है। इसमें जल का नियोजन अहम है, जिसमें नाले का जल
केंद्रीय भूमिका में है।
पाईपों से फल व सब्जी के खेतों में पानी
के नियोजन से बचपन का झरना दम तोड़ता दिख रहा है। जो नाला व्यास नदी तक निर्बाध
बहता था, वह भी बीच रास्ते में ही दम तोड़ता नजर आ रहा है। इस पर बढ़ती जनसंख्या,
मौसम में परिवर्तन व विकास की एकतरफा दौड़ की मार स्पष्ट है। ऐसे में जल के
बैकल्पिक स्रोत पर विचार अहम हो जाता है। उपलब्ध जल का सही व संतुलित नियोजन
महत्वपूर्ण है। सूखते जल स्रोतों को कैसे पुनः रिचार्ज किया जाए, काम बाकि है।
क्षेत्र के समझदार एवं जिम्मेदार लोगों को मिलकर इस दिशा में कदम उठाने होंगे,
अन्यथा विकास की एकतरफा दौड़ आगे अंधेरी सुरंग की ओर बढ़ती दिख रही है। ..(जारी..शेष अगली ब्लॉग पोस्ट में..)