हिमाचल वासी होने के नाते, शिमला से अपना पुराना परिचय रहा है।
शुरुआती परिचय राजधानी शिमला से हुआ, जहाँ स्कूल-कालेज के दिनों में रिजल्ट से लेकर माइग्रेशन तक आना रहा। दूसरा परिचय लुधियाना में पढ़ते हुए युनिवर्सिटी टूर के
दौरान हुआ। बस स्टैंड से माल रोड और रिज तक का सफर। इन संक्षिप्त दौरों में शिमला से सतही
परिचय ही अधिक रहा। राह में शिमला की पहाड़ियां, देवदार के पेड़ और घाटी के विहंगम दृश्य अवश्य मन को लुभाते रहे, लेकिन कंकरीट
में तबदील होता शिमला मन को कचोटता रहा। इसके बाद एक बार शिमला यूनिवर्सिटी में
पढ़ रहे भाईयों से मिलने आया तो देवदार के सघन बनों की गोद में विचरण का मौका मिला, जिसमें पहली
बार कंकरीटी जंगल में तबदील होते शहर से इतर शिमला के नैसर्गिक सौंदर्य को नजदीक से निहारा और
शिमला की मनोरम छवि ह्दय में गहरे अंकित हुई। इसे कभी फुरसत में एक्सप्लोअर करने का भाव रुह में समा चुका था। इसे पूरा करने का संयोग लगभग दस बर्ष बाद 2010 में पूरा होता है
शिमला माल में बिक रहे सेव, नाशपती, चैरी, प्लम, खुमानी, बादाम जैसे फलों को देखकर, सहज ही इनके
बागानों को देखने की इच्छा होती, लेकिन शिमला शहर में कहीं बाग नहीं दिखे। पता चला की शिमला के बाहर इनके सघन बगान हैं। एक दिन में ही इनका विहंगावलोकन किया जा सकता है। इस जुनून मेें इंटीरियर शिमला को भी देखने का मौका मिला। इसी दौरान नालदेरा,
मशोबरा, चैयल, कुफरी, नारकण्डा तक घूमने का संयोग बना। यदि समय हो तो इनसे आगे भी थोड़ा समय लेकर फल-उत्पादन को लेकर हो रहे अत्याधुनिक प्रयोगों को देखा जा सकता है। फलों की नई किस्मों से लेकर डेंस फार्मिंग के प्रयोगों के साथ यहां की माटी को सोना उगलते देखा जा सकता है।
शिमला में ये भ्रमण अकसर मई या नवम्बर माह में ही हुए थे। यहां कई
वर्ष यूनिवर्सिटी में रहे भाईयों का सुझाव था कि शिमला का असली मजा लेना हो तो जुलाई की
बरसात में आना। इस माह में बादलों के उड़ते-तैरते अबारा फाहों के बीच इस हिल स्टेशन का नजारा अलग ही होता
है। ताप भी सम होता है। इस चिरआकांक्षित तमन्ना को पूरा करने का संयोग आज बन रहा था। अकादमिक उद्देश्य
से बने इस टूर में यह अरमान पूरा होने वाला था।
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यात्रा का शुभारम्भ -
हरिद्वार से देहरादून होते हुए हम हिमाचल ट्रांसपोर्ट की बस
सेवा में चढ़े। देहरादून बस स्टैंड पर ही काले-काले बादल उमड़ चुके थे। बस का
काउंटर पर इंतजार हो ही रहा था कि बारिश शुरु हो चुकी थी। बारिश के इस अभिसिंचन
के साथ यात्रा का शुभारम्भ हम एक शुभ संकेत मान रहे थे। बस शाम को 630 बजे पर चल
पड़ी। सीट के साथ हमें एक तिब्बती यात्री मिले, जो धर्मशाला से थे व अपने
व्यापारिक उद्देश्य से शिमला जा रहे थे। अपनी रूचि व जानकारी के अनुरुप इनसे तिब्बत के पुरातन इतिहास पर चर्चा करते रहे। महायोगी मिलारेपा का जीवन, साधना, आध्यात्मिक रुपांतरण, कविताओं पर चर्चा करते रहे। लोबजांग राम्पा की नॉबेल-थर्ड आई और हॉलीबुड फिल्म - सेवेन
इयर इन तिब्बत के अनुरुप भी तिब्बत से जु़ड़ी रोमांचक यादों को शेयर करते रहे। पता
चला हमारे तिब्बती भाई आजकल टीवी में चल रहे अशोका द ग्रेट सारियल को रुचि से देखते
हैं।
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आईएसबीटी
से पंथा घाटी की ओर -
बस स्टैंड पर रात का
धुंधलका छंट रहा था। बसों की जगमगाती रोशनी के बीच सुबह का आगमन हो रहा था। ध्यानस्थ देवतरु भी
जैसे योगनिद्रा से जाग रहे थे। कुछ देर इंतजार करने तक बस स्टैंड पर
बाहन आ चुका था। 18 किमी
का सफर बाकि था। रास्ते भर ड्राइवर के मोबाईल में बज रहे शिव चालीसा और सुफी गीतों के बीच सुबह
का सफर भक्तिमय रहा। लोग रास्ते में मोर्निंग वॉक करते दिखे। रास्ते भर सड़क के दोनों ओर खड़े देवदार के गगनचूम्बी
वृक्ष लगा जैसे हमारा
स्वागत कर रहे थे। बीच-बीच में आबादी से फूलते शिमला शहर के कंकरीटी सत्य के भी दर्शन हुए। लो हम
शिमला के छोर पंथा घाटी पहुंच चुके थे। अब विवि के लिए मुख्य मार्ग से शियोगी वाइपास से नीचे
उतरना था।
आगे की राह में आवादी क्रमशः बिरल हो रही थी। हम गहरी घाटी में नीचे उतर रहे थे। नीचे और सुदूर
घाटी का विहंगम दृश्य दर्शनीय था। रास्ते में देवदार के पनप रहे युवा बनों के बीच हम
एक विरल आनन्द की अनुभूति कर रहे थे। रास्ते में चीड़ के बिखरे जंगल भी मिले। कुछ ही मिनटों में
हम विवि के प्रवेश द्वार पर खड़े थे। वाइपास रोड़ से संकड़ी सड़क विवि परिसर की ओर उतर रही
थी।
(शेष
अगले भाग-2 में- मेरा शिमला का पहला सफर बरसाती)