अध्यात्म क्या? – अपनी खोज में निकल
पड़े मुसाफिर की राह, मंजिल
है अध्यात्म। जब लक्ष्य अपनी चेतना का स्रोत समझ आ जाए तो अपने उत्स, केंद्र की यात्रा है
अध्यात्म। थोड़ा एडवेंचर के भाव से कहें तो यह अपनी चेतना के शिखर का आरोहण है।
अध्यात्म स्वयं को समग्र रुप से जानने की प्रक्रिया है। विज्ञजनों की बात मानें तो
यह जीवन पहेली की मास्टर-की है। आश्चर्य़ नहीं कि सभी विचारकों-दार्शनिकों-मनीषियों
ने चाहे वे पूर्व के रहे हों या पश्चिम के, जीवन के निचोड़ रुप में एक ही बात कही – आत्मानम् विद्, नो दाईसेल्फ, अर्थात पहले, खुद को जानो, स्वयं
को पहचानो।
इस तरह अध्यात्म आत्मानुसंधान का पथ है, एक अंतर्यात्रा है।
अध्यात्म उस आस्था का नाम है जो जीवन का केंद्र अपने अंदर मानती है और जीवन की हर
समस्या का समाधान अपने अस्तित्व के केंद्र में खोजते का प्रयास करती है।
अध्यात्म की आवश्यकता – अध्यात्म
मानवीय जीवन में अंतर्निहित दिव्य विशेषता है, इसका केंद्रीय तत्व है और जीवन की मूलभूत आश्यकता है। सभी सांसारिक जरुरतें पूरी होने के
बाद, सभी तरह का लौकिक ज्ञान
पाने के बाद, सभी तरह की
भौतिक सुख-समृद्धि-उपलब्धि के बाद भी जो खालीस्थान बना रहता है, अध्यात्म उस
खालीस्थान की पूर्ति है। अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस रुप में इसे जीवन की मेटानीड,
जीवन की महा-आवश्यकता बता रहे हैं। चेतनात्मक संकट से गुजर रहे आधुनिक इंसान की
आंतरिक त्रास्दी को समेटे मॉड्रन मेन इन सर्च ऑफ गॉड, सप्रिचुअल क्राइसिस
ऑफ मॉड्रन
मैन जैसी पश्चमी विचारकों कार्ल जुंग एवं पॉल ब्रंटन की शोधपूर्ण
रचनाएं भी इसी सत्य को उद्घाटित करती हैं।
अध्यात्म का महत्व – अध्यात्म जीवन की
समग्र समझ देता है। यह जीवन के एकतरफा भौतिक विकास का संतुलक है। आंतिरक विकास के
साथ वाह्य जीवन की प्रगति को संतुलित करता है। यह आंतरिक शक्तियों के जागरण की
स्वाभाविक प्रक्रिया है, यह व्यक्ति के समग्र विकास को सुनिश्चित करता है। यह जीवन
के दव्न्दों के पार जाने की सूझ व शक्ति देता है। खुद से रुबरु कर, विराट से
जोड़ता है और चरम संभावनाओं के विकास का द्वार खोलता है। यह जीवन को गुणवता देता
है और व्यक्तित्व में विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता को पैदा करने वाला तत्व है। आश्चर्य नहीं
कि यह चरित्र निर्माण की धूरी है, श्रेष्ठ नागरिक को तैयार करने की प्रयोगशाला है।
यह स्व-अनुशासित जीवन का नाम है। एक अच्छा इंसान बनने की जरुरत यहीं कहीं सही
मायने में पूर्ण होती है। शांति, स्वतंत्रता, आनन्द की खोज यहीं
पूर्णता पाती है। जीवन के चरम एवं परम विकास की संभावनाएं इसी के आधार पर शक्य-संभव बनती हैं। मनुष्य अपने भाग्य विधाता होने का भाव यहीं कहीं पाता है। आश्चर्य नहीं कि जिन भी महापुरुषों, महामानवों एवं देवमानवों को हम आदर्श के रुप में श्रद्धानत होकर सुमरण-अनुकरण करते हैं, अध्यात्म किसी न किसी रुप में उनके जीवन का केंद्रीय तत्व रहा है।
अध्यात्म
पथ के अनिवार्य सोपान
जीवन जिज्ञासा, आंतरिक खोज, आत्मानुसंधान – अपनी खोज में
निकला पथिक जाने अनजाने में अध्यात्म पथ का राही होता है। यह जिज्ञासा जीवन के
किसी न किसी मोड़ पर जोर अवश्य पकड़ती है। कुछ जन्मजात यह अभीप्सा लिए होते हैं।
किंतु अधिकाँश जीवन के टेड़े मेड़े रास्ते में राह की ठोकरें खाने के बाद, बाह्य
जीवन के मायावी रुप से मोहभंग होते ही या जीवन के विषम प्रहार के साथ सचेत हो जाते
हैं और जीवन के वास्तविक सत्य की खोज में जीवन के स्रोत्र की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन
के नश्वर स्वरुप का बोध एवं जीवन में सच्चे सुख व शांति की खोज व्यक्ति को देर
सबेर अध्यात्म मार्ग पर आरुढ़ कर देती है। जीवन की वर्तमान स्थिति से गहन असंतुष्टी का भाव और मुमुक्षुत्व,
अध्यात्म जीवन का प्रारम्भिक सोपान है।
आध्यात्मिक जीवन दृष्टि – इसी के साथ अपनी खोज की प्रक्रिया शुरु होती है और जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि का विकास होता है। इस सानन्त बजूद में अनन्त की खोज आगे बढ़ती है। शरीर व मन से बने स्वार्थ-अहं केंद्रित संकीर्ण जीवन के परे एक विराट अस्तित्व का महत्व समझ आता है, यह अध्यात्म का दूसरा सोपान है। अब समाधान की तलाश अपने अंदर होती है। किसी से अधिक आशा अपेक्षा नहीं रहती। भीड़ के बीच भी एकाकीपन का भाव प्रगाढ़ रहता है और अपने तमाम शुभचिंतकों के बावजूद यह एक एकाकी यात्रा होती है। पथिक का एकला यात्रा पर विश्वास प्रगाढ़ रहता है। वह यथासंभव दूसरों की मदद करता है और समस्याओं से भरे संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का प्रयास करता है।
आध्यात्मिक जीवन शैली – आध्यात्मिक जीवन
दृष्टि का स्वाभाविक परिणाम होता है आध्यात्मिक जीवन शैली, जो संयमित एवं अनुशासित
दिनचर्या का पर्याय है। शील-सदाचारपूर्ण व्यवहार इसके अनिवार्य आधार हैं। अपनी
मेहनत की ईमानदार कमाई इसका स्वाभाविक अंग है। इसके तहत वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक,
भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं के सम्यक विकास के प्रति जागरुक रहता है और एक कर्तव्यपरायण जीवन जीता है।
कर्तव्य परायण जीवन – आध्यात्मिक जीवन
कर्तव्यपरायण होता है। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं कर्मठ। श्रमशील जीवन अध्यात्मिक
जीवन की निशानी है। घर परिवार हों या संसार व्यापार, अपने कर्तव्यों का होशोहवास में बिना
किसी अधिक राग-द्वेष या आसक्ति के निर्वाह करता है। जीवन के निर्धारित रणक्षेत्र में एक
यौद्धा की भांति अपनी भूमिका निभाता है और धर्म मार्ग पर आरुढ़ रहता है। अपने कर्तव्यकर्मों से पलायन, आलसी-विलासी जीवन से अध्यात्म का दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता।
आदर्शनिष्ठ, आत्म-परायण जीवन – अपने परमलक्ष्य की
ओर बढ़ रहे आध्यात्मिक जिज्ञासु का जीवन आदर्श के प्रति समर्पित होता है। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, कोई विचार या भाव भी। आदर्श के
उच्चतम मानदण्डों की कसौटी पर खुद के चिंतन-व्यवहार को सतत कसते हुए, पथिक अपनी
महायात्रा पर अग्रसर रहता है। अपने मन एवं विचारों को उच्चतम भावों में निमग्न
रखने के लिए स्वाध्याय-सतसंग का सहारा लेता है।
स्वाध्याय-सतसंग – आध्यात्मिक
आदर्श एवं महापुरुषों का संग-साथ अध्यात्म का
महत्वपूर्ण सोपान है। आंतरिक संघर्ष के पलों में इनसे आवश्यक प्रेरणा एवं
मार्गदर्शन पाता है। खाली समय में उच्च आदर्श एवं सद्विचारों में निमग्न रहता है। आध्यात्मिक
ग्रंथों एवं सत्साहित्य का अध्ययन जीवन का अभिन्न अंग होता है। इस प्रकार सद्विचारों का महायज्ञ
उसके चितकुण्ड में सदा ही चलता रहता है, जो क्रमशः उसे ध्यान की उच्चस्तरीय कक्षा के लिए तैयार करता है।
आत्म चिंतन – ध्यान परायण जीवन – निसंदेह अपने आत्म रुप का चिंतन, जीवन लक्ष्य पर विचार, आदर्श का सुमरण-वरण इसके अनिवार्य सोपान हैं। इसके लिए अभीप्सु ध्यान के लिए कुछ समय अवश्य निकालता है। अपने अचेतन मन को सचेतन करने की प्रक्रिया को अपने ढंग से अंजाम देता है। आत्म तत्व का चिंतन उसे परम तत्व की ओर प्रवृत करता है और ईश्वरीय आस्था जीवन का सबल आधार बनती है।
आत्म श्रद्धा, ईश्वर विश्वास –अपनी आत्म सत्ता पर
श्रद्धा जहाँ एक छोर होता है वहीं ईश्वरीय आस्था इसका दूसरा छोर। अध्यात्मवादी अपनी
आध्यात्मिक नियति पर दृढ़ विश्वास रखता है और अपने पुरुषार्थ के बल पर अपने
सत्कर्मों के आधार पर अपने मनवाँछित भाग्य निर्माण का प्रयास करता है। साथ ही वह ईश्वरीय
न्याय व्यवस्था को मानता है। दूसरे जो भी व्यवहार करें, अपने स्तर को गिरने नहीं
देता। व्यक्तित्व की न्यूनतम गरिमा एवं गुरुता अवश्य बनाए रखता है। अपनी पूरी जिम्मेदारी आप लेता है, अंदर ईमान तथा उपर भगवान को साथ जीवन
के रणक्षेत्र में प्रवृत रहता है।
प्रार्थना – प्रार्थना
आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। अध्यात्मपरायण व्यक्ति अपनी औकात, अपनी मानवीय सीमाओं को
जानता है, इससे ऊपर उठने के लिए, इनको पार करने के लिए ईश्वरीय
अबलम्बन में संकोच नहीं करता। वह प्रार्थना की अमोघ शक्ति को जानता है और अपनी
ईमानदार कोशिश के बाद भी जो कसर रह जाती है उसे प्रार्थना के बल पर पूरी करते का
प्रयास करता है।
निष्काम सेवा – सेवा अध्यात्म पथ का एक महत्वपूर्ण सोपान
है। सेवा को आत्मकल्याण का एक सशक्त माध्यम मानता है। जिस आत्म-तत्व की खोज अपने अंदर करता है वही तत्व बाहर पूरी सृष्टि में निहारने का प्रयास करते हुए यथासंभव सबके साथ सद्भावपूर्ण बर्ताव करता है। अपनी क्षमता एवं योग्यतानुरुप जरुरतमंद, दुखी-पीड़ीत इंसाव एवं प्राणियों की सेवा सत्कार के लिए सचेष्ट रहता है और निष्काम सेवा को अध्यात्म पथ का
महत्वपूर्ण सोपान मानता है।
सृजनधर्मी
सकारात्मक जीवन- अध्यात्म से उपजा आस्तिकता का भाव व्यक्ति में अपने अस्तित्व के प्रति आशा का भाव जगाता है, अध्यात्म से उपजी कर्तव्यपरायणता उसे सृजनपथ पर आरुढ़ करती है और अपने स्रोत की ओर बढ़ता उसका हर ढग उसे सकारात्मक उत्साह से भरता है। अतः अध्यात्म नेगेटिविटी को जीवन में प्रश्रय नहीं देता।
वह जिस भी क्षेत्र में काम करता है, एक सकारात्मक परिवर्तन के संवाहक के रुप में
अपनी अकिंचन सी ही सही किंतु निर्णायक भूमिका निभाता है। हमेशा सकारात्मकता एवं सृजन के प्रति समर्पित जीवन आध्यात्मिकता का परिचय,
पहचान है।
बहुत बढ़िया 🙏🏻
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद आपका।
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