सोमवार, 11 मई 2015

प्रकृति की गोद में एडवेंचर अविराम



प्रकृति की गोद में कितनी शांति,
कितना सुकून, कितना आनन्द विश्राम,
एक बार चख लिया स्वाद जो इसका,
मचले कूदे फिर मन मासूम नादान,
बन जाए यायावर इंसान ताउम्र फिर,
प्रकृति की गोद में एडवेंचर अविराम।




झरते हैं स्वयं परमेश्वर प्रकृति से, 
क्यों न हो फिर विराट से मिलान,
हो जाता है अनंत से भी परिचय राह में, 
आगोश में मिट जाए क्षुद्र स्व अभिमान,
पा लेता है खुद को इंसान इस नीरवता में, 
शाश्वत, सरल, सहज, स्फूर्त, आप्तकाम।

 


फिर क्या बादलों की गर्जन तर्जन,
क्या राह की दुर्गम चढ़ाई, आँधी-तूफान,
हिमध्वल शिखर पर ईष्ट-आराध्य अपने,
प्रकृति की अधिष्ठात्री, कालेश्वर महाकाल,
कौन रोक सके फिर दीवानगी इन पगों की,
चल पड़े जो अपने ईष्ट के अक्षर धाम।



यहीं से शुरु अंतर्यात्रा अपने उत्स की,
एडवेंचर के संग प्रकटे दूसरा आयाम,
बदले जिंदगी के मायने, अर्थ, परिभाषा सब,
नहीं दूर जीवन पहेली का समाधान,
चेतना के शिखर का आरोहण यह,
प्रकृति की गोद में एडवेंचर अविराम।

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