हर दिन वसंत कहाँ
कालचक्र का पहिया घूम रहा,
परिवर्तन का शाश्वत विधान,
आए सुख-दुख यहाँ बारी-बारी,
लेकिन हर दिन वसंत कहाँ ।1।
अंगार बरसाता गर्मी का मौसम,
चरम पर बरसात की शीतल फुआर,
जग सारा जलमग्न हो इसमें,
सताए भूस्खलन, बाढ़ की मार।2।
सताए भूस्खलन, बाढ़ की मार।2।
फसल कटते ही फिर मौसम सर्दी का,
पतझड़ का मौसम अबकी बार।3।
पतझड़ का मौसम अबकी बार।3।
जीवन ठहर सा जाए, सब घर में दुबके,
अब ठंड से राहत का इंतजार।4।
उत्तुंग शिखरों से गिरते हिमनद,
मस्ती का तराना घाटी के आर-पार।5।
मस्ती का तराना घाटी के आर-पार।5।
यही सच जीवन का शाश्वत सनातन,
उतार-चढ़ाव, सुख-दुख आए क्रम बार,
गमों की तपन झुलसाए मन को,
सौगात में दे जाए जीवन का सार।6।
धुल जाए गिले-शिक्बे फिर सारे,
हो सृजन की नई शुरुआत,
सत्कर्मों के बीजों का रोपण,
पग-पग पर वासंती अहसास।7।
पग-पग पर वासंती अहसास।7।
लेकिन साल भर कहाँ रहता बसंत,
अगले मोड़ पर पतझड़ की मार,
शीतनिद्रा में गुमसुम सा जीवन,
नए सृजन का फिर लम्बा इंतजार।8।
नए सृजन का फिर लम्बा इंतजार।8।
इंतजार का फल मीठा,
दे गहन तृप्ति सुख आनन्द अपार,
छा जाए फिर मौसम वसंत का,
इसका भी आलम कहाँ शाश्वत अविराम।9।
समझ में रहे गर यह चक्र जीवन का,
और प्रकृति का शाश्वत विधान,
समझ आए गर यह जीवन विज्ञान,
तो नहीं कठिन फिर लक्ष्य संधान,
परिवर्तन चक्र अपनी जगह,
मुट्ठी में स्रष्टा का द्रष्टा विधान।12।
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