धनबाद से राँची का ट्रेन सफर
यह मेरी पहली यात्रा थी, झारखण्ड की। हरिद्वार से दून एक्सप्रेस से
अपने भाई के संग चल पड़ा, एक रक्सेक पीठ पर लादे, जिसमें पहनने-ओढने, खाने-पीने,
पढ़ने-लिखने व पूजा-पाठ की आवश्यक सामग्री साथ में थी। ट्रेन की स्टेशनवार समय
सारिणी साथ होने के चलते, ट्रेन की लेट-लतीफी की हर जानकारी मिलती रही। आधा रास्ता
पार करते-करते ट्रेन 4 घंटे लेट थी। उम्मीद थी कि, ट्रेन आगे सुबह तक इस गैप को
पूरा कर लेगी, लेकिन आशा के विपरीत ट्रेन क्रमशः लेट होती गयी। और धनबाद
पहुंचते-पहुंचते ट्रेन पूरा छः घंटे लेट थी।
रास्ते में भोर पारसनाथ स्टेशन पर हो चुकी थी। सामने खडी पहाड़ियों को
देख सुखद आश्चर्य़ हुआ। क्योंकि अब तक पिछले दिन भर मैदान, खेत और धरती-आकाश को
मिलाते अनन्त क्षितिज को देखते-देखते मन भर गया था। ऐसे में, सुबह-सुबह पहाड़ियों
का दर्शन एक ताजगी देने वाला अनुभव रहा। एक
के बाद दूसरा और फिर तीसरा पहाड़ देखकर रुखा मन आह्लादित हो उठा। हालांकि यह बाद में पता चला की यहाँ पहाड़ी के शिखर पर जैन धर्म का पावन तीर्थ है।
धनबाद पहुंचते ही ट्रेन रांची के लिए तुरंत मिल गयी थी। 11 बजे धनबाद
से राँची के लिए चल पड़े। धनबाद से राँची तक का वन प्रांतर, खेत, झरनों, नदियों,
कोयला खदानों व पर्वत शिखरों के संग ट्रेन सफर एक चिरस्मरणीय अनुभव के रुप में स्मृति पटल पर अंकित हुआ।
रास्ते में स्टेशनों के नाम तो याद नहीं, हाँ साथ में सफर
करते क्षेत्रीय ज्वैलर बब्लू और पॉलिटेक्निक छात्र अमर सिंह का संग-साथ व संवाद
याद रहेगा। इनके साथ आटा, गुड़, घी से बना यहाँ का लोकप्रिय ठेकुआ, आदिवासी अम्मा द्वारा खिलाए ताजे अमरुद और कच्चे मीठे आलू का स्वाद आज भी ताजा हैं। स्टेशन पर इडली और झाल मुईं
यहाँ का प्रचलित नाश्ता दिखा। साथ ही यहाँ राह में ठेलों पर कमर्शियल सेब खूब बिक रहा था, जिसे हमारे
प्रांत में पेड़ से तोड़कर शायद ही कोई खाता हो। (क्योंकि यह बहुत कड़ा होता है, पकाने पर कई दिनों
बाद ही यह खाने योग्य होता है)
रास्ते में तीन स्टेशन बंगाल प्रांत से जुड़े मिले। यहाँ जेट्रोफा के
खेत दिखे, जिनसे पेट्रोलियम तैयार किया
जाता है। पता चला कि झारखँड में देश की 45 फीसदी कोयला खदाने हैं और यह यूरेनियम
का एकमात्र स्रोत वाला प्रांत है। इसके बावजूद राजनैतिक अस्थिरता का दंश झेलती
जनता का दर्द साफ दिखा। 2000 में अस्तित्व में आए इस प्रांत में अब तक 15 वर्षों
में 9 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं। हाल ही में पिछले सप्ताह हुए चुनाव में भागीदार जनता
का कहना था कि इस बार मिली जुली सरकार के आसार ज्यादा हैं। अखबारों से पता चला कि
आज रांची में प्रधानमंत्री मोदी जी की रैली है। (हालाँकि मोदी लहर के चलते परिणाम
दूसरे रहे और आज वहाँ एक स्थिर सरकार है।)
रास्ते में हर आधे किमी पर एक नाला, छोटी नदी व रास्ते भर जल स्रोत के
दर्शन अपने लिए एक बहुत ही सुखद और रोमाँचक अनुभव रहा। इनमें उछलकूद करते बच्चे,
कपड़े धोती महिलाएं औऱ स्नान करते लोगों को देख प्रवाहमान लोकजीवन की एक जीवंत
अनुभूति हुई। खेतों में पक्षी राज मोर व तालावों में माइग्रेटरी पक्षियों के दर्शन
राह में होते रहे। साथ ही तालाब में लाल रंग के खिलते लिली फूल इसमें चार चाँद लगा रहे थे।
इस क्षेत्र की बड़ी विशेषता इसकी अपनी खेती-बाड़ी से जुड़ी जड़ें लगी।
धान की कटाई का सीजन चल रहा था। कहीं खेत कटे दिखे, तो कहीं फसल कट रही थी। कहीं-कहीं ट्रेक्टरों में फसल लद रही थी। धान के
खेतों में ठहरा पानी जल की प्रचुरता को दर्शा रहा था। अभी सब्जी और फल उत्पादन व
अन्य आधुनिक तौर-तरीकों से दूर पारम्परिक खेती को देख अपने बचपन की यादें
ताजा हो गयी, जब अपने पहाड़ी गाँवों में खालिस खेती होती थी।(आज वहाँ कृषि की जगह
सब्जी, फल और नकदी फसलों (कैश क्रोप) ने ले ली है। जबकि यहाँ की प्रख्यात
पारम्परिक जाटू चाबल, राजमा दाल जैसी फसलें दुर्लभ हो गई हैं।) लेकिन यहाँ के
ग्रामीण आंचल में अभी भी वह पारंपरिक भाव जीवंत दिखा। फिर हरे-भरे पेड़ों से अटे
ऊँचे पर्वतों व शिखरों को देखकर मन अपने घर पहुँच गया। अंतर इतना था कि वहाँ
देवदार और बाँज के पेड़ होते हैं तो यहाँ साल और पलाश के पेड़ थे। ट्रेन सघन बनों
के बीच गुजर रही थी, हवा में ठंड़क का स्पर्श सुखद अहसास दे रहा था। स्थानीय लोगों
से पता चला कि रात को यहाँ कड़ाके की ठंड पड़ती है। रास्ते में बोकारो स्टील प्लांट के दूरदर्शन भी हुए। पता चला कि बोकारो का जल बहुत मीठा होता
है।
रास्ते में साल के पनपते वन को देख बहुत अच्छा लगा। यहाँ के वन विभाग
का यह प्रयास साधुवाद का पात्र लगा। ट्रेन में गेट पर खड़ा होकर वनों, पर्वत
शिखरों का अवलोकन का आनन्द लेता रहा। साथ ही मोड़ पर ट्रेन के सर और पूँछ दोनों को
एक साथ देखने का नजारा, हमें शिमला की ट्वाय ट्रेन की याद दिलाता रहा। हालाँकि
यहाँ के वनों में बंदर-लंगूर का अभाव अवश्य चौंकाने वाला लगा।
राँची से कुछ कि.मी. पहले बड़े-बड़े टॉवर दिखने शुरु हो गए। बढ़ती आबादी
को समेटे फूलते शहर का नजारा राह की सुखद-सुकूनदायी अनुभूतियों पर तुषारापात करता
प्रतीत हुआ। बढ़ती आबादी के साथ पनपती गंदगी, अव्यवस्था और स्थानीय आबादी में बिलुप्त
होती सरलता-तरलता मन को कचोट रही थी।
यहाँ का लोकप्रिय अखबार प्रभात खबर हाथ में लगा, जिसके ऑप-एड
पेज में आधुनिक टेक्नोलॉजी के संग पनपते एकांकी जीवन के दंश को झेलते पश्चिमी जगत
पर विचारोत्तेजक लेख पढ़ा। पढ़कर लगा कि यह तो पांव पसारता यहां का भी सच है। सच
ही किसी ने कहा है – जितना हम प्रकृति के करीब रहते हैं, उतना ही संस्कृति से, अपनी
जड़ों से जुड़े होते हैं औऱ जितना हम प्रकृति से कटते हैं, उतना ही हम खुद से और
अपनी संस्कृति से भी दूर होते जाते हैं। रास्ते का यह विचार भाव रांची
पहुंचते-पहुंचते सघन हो चुका था और स्टेशन से उतर कर महानागर की भीड़ के बीच मार्ग
की सुखद अनुभूतियाँ धुंधली हो चुकीं थीं।
रास्ते भर मोबाइल की बैटरी डिस्चार्ज होने के कारण रास्ते के वर्णित
सौंदर्य को कैमरे में कैद न कर पाने का मलाल अवश्य रहा। भारतीय रेल्वे की इस
बेरुखी पर कष्ट अवश्य हुआ। लेकिन आभारी भी महसूस करता हूँ कि इसके चलते मैं रास्ते
भर के दिलकश नजारों को अपनी आंखों से निहारता हुआ, स्मृति पटल पर गहराई से अंकित
करता रहा, जो आज भी स्मरण करने पर एक ताजगी भरा अहसास देते हैं।
(28-29 नवम्बर, 2014)
पाँच साल बाद सम्पन्न यहां की यात्रा को आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
मेरी दूसरी झारखण्ड यात्रा, हर दिन होत न एक समान।
लेखन में एक प्रवाह है | सुंदर चित्रण है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अवस्थीजी। ह्दय के अनुभूत भावों को व्यक्त करने की कोशिश की थी, आपकी रुचिकर टिप्पणी उत्साहबर्धक लगी।
जवाब देंहटाएंअतिउत्तम
जवाब देंहटाएंअतिउत्तम
जवाब देंहटाएंधन्य वेदप्रकाशजी।
हटाएंगजब की लेखी
हटाएंधन्यवाद स्वतंत्र शुक्लाजी आपका।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 24 सितम्बर 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद! .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विभारानी जी। आपकी टीम का यह प्रयास उत्साहबर्धक एवं सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर ज्ञानप्रद यात्रा वृतांत सर जी,उम्दा लेखनी 😊💐💐
जवाब देंहटाएंधन्यवाद तेज। अपने तेज से जग को आलोकित करते रहो।
हटाएंPahli baar aapki blog par aana hua, bhut hi achi post
जवाब देंहटाएंrahichaltaja.blogspot.com
Dhanyabad Abhyanandji!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका।
हटाएंधन्यवाद आपका।
जवाब देंहटाएंsir तुषारापात ka mtlb kiya hota hai
जवाब देंहटाएंतुषार पाला को कहते हैं सत्यम। तुषारापात का शाब्दिक अर्थ हुआ पाला गिरना। जब फसल को पाला मार जाता है तो फसल बर्वाद हो जाती है। अतः तुषारापात का अर्थ आशाओं पर पानी फिर जाना भी है।
जवाब देंहटाएंIt's too good sir...
जवाब देंहटाएंThanks a lot Kashish!!
जवाब देंहटाएंदेवी गंगा केतट हरिद्वार से पधार कर स्वर्णरेखा नदी के तट झारखंड पहुंचे और खुबसूरत अनुभव लिखे_तो गर्व होने लगता है कि हमलोग जनजातीय बहुल खनिजगर्भा प्रदेश में निवास करते हैं_ मैं अभिनंदन करता हूँ कलमकार आदरणीय सुखनंदन सिंह जी का_ एवं वंदन करता हूँ इनकी लेखनी का
जवाब देंहटाएंDhanyabad evam hardik abhar lekhani ke dhani kalmkar Shri Sandeep Murarkaji ko.
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