कब से तुम्हें पुकार रहा, कब से रहा निहार,
बीत चले युगों-जन्म, करते-2 तुम्हारा इंतजार।
कब सुमिरन होगा वह संकल्प
शाश्वत-सनातन,
कब कूच करोगे अपने ध्येय की ओर महान,
कब कूच करोगे अपने ध्येय की ओर महान,
कैसे भूल गए तुम अमृतस्य
पुत्र का आदि स्वरुप अपना,
लोटपोट हो नश्वर में, कर रहे अपनी सत्ता का
अपमान।
धरती पर भेजा था क्यों, क्या जीवन का ठोस आधार,
क्यों खो बैठे सुधबुध अपनी, यह
कैसा मनमाना आचार,
संसार में ही यह कैसे नष्ट-भ्रष्ट
हो चले,
आत्मन् ज़रा ठहर करो विचार।
चले थे खोज में शांति-अमृत
की,
यह कैसा उन्मादी चिंतन-व्यवहार,
कदम-कदम पर ठोकर खाकर,
नहीं उतर रहा बेहोशी का खुमार।
कौन बुझा सका लपट वासना की,
लोभ-मोह की खाई अपार,
अहंकार की माया निराली,
सेवा में शर्तें, क्षुद्र व्यापार।
कब तक इनके कुचक्र में पड़कर,
रौरव नरक में झुलसते रहोगे हर
बार,
कितना धंसोगे और इस दलदल
में,
पथ यह अशांति, क्लेश,
गुलामी का द्वार।
बहुत हो गया वीर सब खेल तमाशा, समेट
सकल क्षुद्र स्व, मन का ज़्वार,
जाग्रत हो साधक-शिष्य संकल्प में, बढ़ चल नश्वर भटकन के उस पार।
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