शनिवार, 31 मई 2014

वो पल दो-चार


मई माह में बाद दोपहरी की शीतल वयार,


सूरज अस्ताचल की ओर बढ़ रहा,




झुरमुट के आंचल में बैठा चाय का कर रहा था इंतजार,

गगनचुम्बी देवतरु के सान्निध्य में बैठा विचारमग्न,

घाटी की गहराईयों से चल रहा था कुछ मूक संवाद,

बाँज-बुराँश के हिलते पत्ते झूम रहे थे अपनी मस्ती में,

आकाश में घाटी के विस्तार को नापती बाज़ पक्षियों की उड़ान,

वृक्षों पर वानरसेना की उछलकूद, घाटी से गूंजता पक्षियों का कलरव गान,

मन में उमड़-घुमड़ रही थी संकल्प-विकल्प की बदलियाँ,

चिदाकाश पर मंडरा रहे थे अवसाद के अवारा बादल दो-चार,

विदाई के नजदीक आते दिनों के लिए, कर रहा था मन को तैयार।

लो आ गई प्रतीक्षित प्याली गर्म चाय की,

चुस्की के साथ छंटने लगी आकाश में छाई काली बदलियाँ,

अड़िग हिमालय सा ध्यानस्थ हो चला गहन अंतराल,

थमने लगी चित्त की चंचल लहरें,

शांत हो चली प्राणों की हलचल, मन का ज्वार,

भूत भविष्य के पार स्मृति कौंध उठी अंतर में कुछ ऐसे,

वर्तमान में चैतन्य हो चला अंतस तब जैसे,

नई ताज़गी, नई स्फुर्ति का हो चला संचार,

बढ़ चले कदम कर्मस्थल (लाइब्रेरी) की ओर,

आज भी याद हैं शीतल दोपहरी में,

चाय की चुस्की के साथ, ध्यान के वे पल दो-चार।


(स्मृति, IIAS, Shimla, May 2013)




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