पहचानो अपने मौलिक स्वप्न-सच की गहराई
कहाँ भागते हो इस जग से,
कहाँ फिरते हो दूर देश
एकांत वन प्रांतर में,
कहीँ ऐसा
तो नहीं, भाग रहे हो तुम,
खुद से, बोए बबूल
वन, अपने अंतर के ।1।
यह कैसी दौड़ अँधी, नहीं पग
के ढग स्वर में,
यह कैसी खुमारी, नहीं होश
आगत कल के,
कहीं ऐसा
तो नहीं, भाग रहे हो तुम,
खुद से, खोए-उलझे
तार अपने मन के ।2।
दुनियाँ
को दिशा देने चले थे बन प्रहरि,
यह कहाँ अटक गए खड़े
दिग्भ्रमित चाल ठहरी,
कहीं ऐसा
तो नहीं, भाग रहे हो तुम खुद से,
जी रहे
हो सपने दूसरों से लिए उधारी ।3।
करो
तुम सामना अब हर सच का वीर बनकर,
सत्य में ही किरण समाधान की, साधो वीर बनकर,
संग गर
ईमान तो, परवाह न करना उस जग की,
जो खुद ही नहीं कायम कायदे पर, नहीं फ्रिक जिसे सच की।4।
करना संयम साधना तुम बन
शक्ति साधक,
जग का उपकार करना बन शिव
आराधक।
वज्र सा
कठोर बन पुष्प सा कोमल,
करना शोध उस सत्य की, जो शाश्वत-शिव-सुंदर ।5।
पहचानो
वीर! मौलिक सच
अब अपना,
देखो जागते होश में हर सपना।
दिखाओ अपने स्वप्न-सच को जीने की होशियारी,
नहीं और बर्दाशत अब बिगड़ैल मन की मक्कारी।6।
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