मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

अपना सच जीने की तैयारी

पहचानो अपने मौलिक स्वप्न-सच की गहराई


कहाँ भागते हो इस जग से,
                              कहाँ फिरते हो दूर देश एकांत वन प्रांतर में,
कहीँ ऐसा तो नहीं, भाग रहे हो तुम,
                              खुद से, बोए बबूल वन, अपने अंतर के ।1।

यह कैसी दौड़ अँधी, नहीं पग के ढग स्वर में,
                              यह कैसी खुमारी, नहीं होश आगत कल के,
कहीं ऐसा तो नहीं, भाग रहे हो तुम,
                              खुद से, खोए-उलझे तार अपने मन के ।2।

दुनियाँ को दिशा देने चले थे बन प्रहरि,
                             यह कहाँ अटक गए खड़े दिग्भ्रमित चाल ठहरी,
कहीं ऐसा तो नहीं, भाग रहे हो तुम खुद से,
                        जी रहे हो सपने दूसरों से लिए उधारी ।3।

 करो तुम सामना अब हर सच का वीर बनकर,
                             सत्य में ही किरण समाधान की, साधो वीर बनकर,
संग गर ईमान तो, परवाह न करना उस जग की,
           जो खुद ही नहीं कायम कायदे पर, नहीं फ्रिक जिसे सच की।4।

करना संयम साधना तुम बन शक्ति साधक,
                            जग का उपकार करना बन शिव आराधक।
वज्र सा कठोर बन पुष्प सा कोमल,
                          करना शोध उस सत्य की, जो शाश्वत-शिव-सुंदर ।5।

पहचानो वीर! मौलिक सच अब अपना,
             देखो जागते होश में हर सपना।
दिखाओ अपने स्वप्न-सच को जीने की होशियारी,
                               नहीं और बर्दाशत अब बिगड़ैल मन की मक्कारी।6।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

दुनियां को हिलाने जो मैं चला

सार्थक परिवर्तन का सच
 
जवानी के जोश में होश कहाँ रहता है। सो इस जोश में दुनियाँ को बदलने, समाज में क्राँति-महाक्राँति की बातें बहुत भाती हैं। और वह जवानी भी क्या जो एक बार ऐसी धुन में न थिरकी हो, ऐसी रौ में न बही हो। हम भी इसके अपवाद नहीं रहे। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा के भाषण का संस्मरण क्या पढ़ा कि, अंदर बिजली कौंध गई, लगा कि हम भी कुछ ऐसी ही क्राँति कर देंगे। दुनियाँ को हिला कर रख देंगे।

आदर्शवाद तो जेहन में नैसर्ग से ही कूट कर भरा हुआ था, दुनियाँ को बेहतर देखने का भाव भी प्रबल था। लेकिन अपने यथार्थ से अधिक परिचति नहीं थे। सो चल पड़े जग को हिलाने, दुनियाँ को बदलने। घर परिवार, नौकरी छोड़ भर्ती हो गए युग परिवर्तन की सृजन सेना में। धीरे-2 गुरुजनों, जीवन के मर्मज्ञ सत्पुरुषों के सतसंग, स्वाध्याय व आत्म मंथन के साथ स्पष्ट हो चला की क्रांति, परिवर्तन, दुनियाँ को हिलाने का मतलब क्या है। इसके साथ दुनियाँ को हिलाने की बजाए खुद को हिलाने वाले अनगिन अनुभवों से भी रुबरु होते रहे।


   समझ में आया कि, दुनियाँ को हिलाने से पहले खुद को हिलाना पड़ता है, दुनियाँ को जगाने से पहले खुद जागना पड़ता है। और खुद को बदलने की प्रक्रिया बहुत ही धीमी, समयसाध्य और कष्टसाध्य है। रातों रात यहां कुछ भी नहीं होता। जो इस सत्य को नहीं जानते, वे छड़ी लेकर दुनियाँ को ठीक करने चल पड़ते हैं। खुद बदले या न बदले दूसरों को बदलते फिरते हैं और दुनियाँ के न बदलने पर गहरा आक्रोश व मलाल पाले रहते हैं। और प्रायः गहन असंतोष-अशांति में जीते देखे जा सकते हैं।

   जबकि सच्चाई यह है कि संसार को बदलने की प्रक्रिया खुद से शुरु होती है। हम दुनियां में उसी अनुपात में कुछ बदलाव कर सकते हैं, जितना की हमने स्वयं पर सफल प्रयोग किया हो। समाज का उतना ही कुछ भला कर सकते हैं, जितना कि हमने खुद का किया हो। हम कितने ही प्रवचन-कथा कर लें, कितने ही लेख-शोध पत्र छाप लें, कितनी ही पुस्तकें प्रकाशित कर डालें, लेकिन यदि अंतस अनुभूति से रीता है तो इनका अधिक मोल नहीं। अंतर आपा यदि अकालग्रस्त है, तो इसमें सुख शांति के फूल कैसे खिल सकते हैं, भीतर के पतझड़ में वासंती व्यार कैसे बह सकती है व आनंद के झरने कैसे फूट सकते हैं।

   चातुर्य, अभिनय के बल पर या संयोगवश हम दुनियां में बड़ी उपलब्धि पा सकते हैं और अपनी तथाकथ महानता की दमक से जनता की आँखों को चौंधिया सकते हैं। लेकिन, बाहरी जीवन की कितनी भी बड़ी उपलब्धि भीतर के सुखेपन को नहीं भर सकती। हम दुनियां का सबसे शक्तिशाली नेता-अभिनेता, सबसे दौलतमंद, सफल व शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न बन जाएं, लेकिन यदि अंतःकरण सार्थकता की अनुभूति से शून्य है तो यह सूनापन खुद को कचोटता-काटता फिरेगा। क्योंकि अपनी अंतरात्मा अंतर के सच को बखूबी जानती है।

   तो क्यों न हम अंतर के छल-छद्म, झूठ-पाखण्ड की अंधेरी दुनियां से बाहर निकल कर सरलता-सच्चाई व अच्छाई के प्रकाश मार्ग पर बढ़ चलें। सच की आंच में खुद को तपाते हुए, अपने भूत को गलाते हुए, सृजन के पथ पर पर अग्रसर हों। नित्य अपनी दुर्बलताओं पर छोटी-छोटी विजय पाते हुए अंतर के अंधेरे कौने-कांतरों को प्रकाशित करते चलें। और समस्याओं से भरे इस संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का एक अकिंचन सा ही सही किंतु एक मौलिक योगदान दें।

   यदि इतना बन पड़ा तो समझो कि जीवन का एक नया अध्याय शुरु हो गया। तो क्यों न आज अभी से, जहां खड़े हैं वहीं से खुद को बदलने की एक छोटी सी ही सही किंतु एक ठोस शुरुआत कर दें। दुनियाँ कब बदलती है, कब हिलती है, नहीं कह सकते, लेकिन यदि खुद को बदलना शुरु कर दिया तो समझो की अपनी दुनियां तो बदल चली। और फिर ऐसा हो ही नहीं सकता कि परिर्वतन के लिए मचल रही आत्माएं आपकी चिंगारी से सुलगे बिना रह सकें।

रविवार, 13 अप्रैल 2014

इतना काफी नहीं


मंदिर में भगवान अच्छे,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
          मन मंदिर में स्थापित करना होगा।

        दीवालों पर टंगे चित्र आदर्शों के भले,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
      जीवन में धारण करना होगा।

नक्शा जीवन का क्या खूब,
 लेकिन, इतना काफी नहीं,
  जमीं पर उतारना होगा।

 भटक लिए मदहोशी में बहुत,
लेकिन, अब और नहीं,
         होश में, खुद को संवारना होगा।।

       बातें कर ली अच्छाई-भलाई की बहुत,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
               सच की आँच में खुद को तपाना होगा।

  इबादत कर लिए खुदा की बहुत,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
      खुदी को बुलन्द करना होगा।

  चर्चा हो गई परिवर्तन की बहुत,
लेकिन, इतना काफी नहीं,
                                     परिवर्तन बनकर दिखाना होगा।

भांज लिए अंधेरे में लाठी बहुत,
लेकिन, समाधान कहाँ,
                                       अंतर का दीपक जलाना होगा।।

हो गयी शास्त्रों की चर्चा बहुत,
       लेकिन इतना काफी नहीं,
                     जीवन को शास्त्र बनाना होगा।

  बुलंदी को छूने का ईरादा क्या खूब,
लेकिन इतना काफी नहीं,
                             पहले खोदी खाई को पाटना होगा।

  कर लिए बातें गुरु भक्ति की वहुत,
 लेकिन इतना काफी नहीं
             शिष्यत्व को निखारना होगा।

घूमते रहे परिधि में बहुत,
            लेकिन पहुँचे कहाँ,
                                               परिधि के पार साहसिक कदम उठाना होगा।।

   कर लिए प्रार्थना, सुबह शाम बहुत,
       लेकिन इतना काफी नहीं,
                                             कर्म को प्रार्थनामय बनाना होगा।

हो गई देवत्व की बातें बहुत,
                   लेकिन क्षुद्रता से निजात कहाँ,
                         पहले एक सच्चा इंसान बनना होगा।

 हो गया भगवान का कीर्तन भजन बहुत,
लेकिन इतना काफी नहीं,
                                    छल-छिद्रों को पहले बंद करना होगा।

      हो गई क्राँति-महाक्राँति की लिखा-पढ़ी बहुत,
                    लेकिन जीवन ढर्रे पर क्यों,

      सुधार का ठोस कदमआज-अभी से उठाना होगा।।

            

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

एक पथिक की अभिलाषा..


जीवन अगर एक रोमाँच...

जीवन अगर एक पहेलीसमाधान इसका करना होगा,

जीवन अगर एक चुनौतीस्वीकार इसको करना होगा,

जीवन अगर एक स्वप्नसाकार इसे करना होगा,

जीवन अगर एक संग्रामइसमें जूझ लड़ना होगा,

जीवन अगर उफनती धाराइसमें कूद तैरना होगा,

जीवन अगर एक सागर, समर्थ नाव में चढ़ना होगा,

जीवन अगर एक संगीतगहराई में इसके उतरना होगा,

जीवन अगर एक खेलखिलाड़ी बन खेलना होगा,

जीवन अगर एक मरुथलपार इसके चलना होगा,

जीवन अगर एक भ्रमहोश में इससे उबरना होगा,

जीवन अगर एक उपहारसहेज कर इसे रखना होगा,

जीवन अगर एक वायदापूरा इसको करना होगा,

जीवन अगर एक रोमाँचहर पल इसको जीना होगा,

जीवन अगर एक शिखर, आरोहण इसका करना होगा,

जीवन अगर एक संभावना, मूर्त इसको करना होगा,

जीवन अगर पूर्णता की डगरहर कसौटी पर कसना होगा,

गिरि-कंदराअगम्य शिखरवन-प्रांतर से बाहर निकल,

संतप्त जग में सुरसरि धार, हिमनद बन बहना होगा।।


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...