ऐसे में सत्य-न्याय, धर्म-इमान, सही-गलत की बातें
सापेक्ष,
सब अपनी-अपनी समझ, अनुभव, पूर्वाग्रह व समझ के
चश्में से देख रहे।
जब अपने-परायों का भेद मुश्किल, तो बदल जाते हैं
मायने धर्म स्थापना के,
ऐसे में जग के भोलेपन की भ्रम मारीचिका का टूटना
है स्वाभाविक,
और अंधकार की शक्तियों का है वजूद अपना, सत्ता
अपनी, संसार अपना।
नहीं चाहते ये परिवर्तन अभी वाँछित, अपनी शर्तों
पर जीने के ये आदी,
नहीं औचित्य से मतलब इन्हें अधिक, बस अपने वर्चस्व
की है इन्हें चिंता भारी,
इन पर न आए आँच तनिक भी, सत्य, न्याय, इंसानियत से नहीं इन्हें अधिक मतलव।
जाने-अनजाने में हैं ये हिस्सा समस्या के,
शांति-समाधान में नहीं इनको अधिक रुचि,
आलोक सत्य का, प्रकाश धर्म का, तलवार न्याय की, हैं सीधे इनके वर्चस्व को चुनौती,
तिनका-2 जोड़ खड़ा मायावी महल, सत्य की एक
चिंगारी से हो सकता है भस्म तत्क्षण।
अंधकार की इन शक्तियों का निकटतम संवाहक है बिगड़ैल
मन अपना,
छिपे पड़े हैं, जिसके चित्त में महारिपु वासना-त्रिष्णा-अहंता,
राग-द्वेष के अनगिन,
ये भी कहाँ बदलने के लिए हैं तैयार, आलस-प्रमाद
में पड़े उनींदे, कम्फर्ट जोन के आदी।
इन्हीं से है समर पहला, बाहर के धर्मयुद्ध का
मार्ग तभी खुलेगा,
इसलिए कठिन विकट मार्ग सत्य संधान का, धर्म स्थापना
का,
स्वयं से है युद्ध जहाँ पहला, पहले साधना समर में
उतरना होगा।
फिर अधर्म-अन्याय के विरुद्ध, सत्य-धर्म-औचित्य की
दूधारी तलबार लेकर,
काल के तेवर को समझते हुए, महाकाल की इच्छा का
अनुगमन करना होगा।
हरिद्वार से कुल्लू, वाया बस, जून 2025 का एक
यादगार सफर
प्रश्नों के चक्रव्यूह से बाहर निकालता एक यादगार
सफर
हरिद्वार से कुल्लू का सफर कई बार कर चुका हूँ, लेकिन इस वार का सफर
एक नई ताजगी व रोमाँच से भरा हुआ था। अमूमन हरिद्वार से हमारा लोकप्रिय सफर हिमधारा
सेमी डिलक्स में सांय 4 बजे प्रारम्भ होता रहा है, जो चण्डीगढ़ से लेकर हिमाचल के
मंडी तक रात के अंधेरे में ही तय होता रहा है और प्रातः नौ बजे तक अपने गन्तव्य तक
पहुँचाता है। इस बार हम ट्रैब्ल प्लान का शीर्षासन करते हुए 14 जून 2025 के दिन
प्रातः पौने पाँच बजे की बस में हरिद्वार से चढ़ते हैं, बस सामान्य श्रेणी की थी,
लेकिन सीटें किसी भी रुप में सेमी डिलक्स से कम नहीं थी, बस में एसी की सुविधा
नहीं थी, जिसकी पूर्ति रास्ते का हवादार सफर करता रहा।
बल्कि हरिद्वार से देहरादून तक के एक घंटे के सफर में तो ठंड़क अहसास
होता रहा, लगा टोपा या मफलर साथ लिए होते, तो बेहतर रहता। आगे तो अपने टॉउल को सर
पर लपेट पर काम चलाते रहे। ठीक सात बजे देहरादून से बस आगे बढ़ती है। राह के कई
पड़ावों व खेत-खलिहानों को पार करते हुए हम पौंटा साहिव पहुँचते हैं। यहाँ यमुना
नदी पर बना पुल और इसके वाईं ओर राइट बैंक पर दशम गुरुगोविंद सिंह जी के स्वर्णिम
काल का साक्षी गुरुद्वारा पौंटा साहिब सदैव ही गहनतम भाव-श्रद्धा के साथ नतमस्तक
करता है।
इसके आगे कुछ देर तक मैदानी क्षेत्र को पार करने के बाद क्रमिक रुप से
पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश होता है और घाटी के शिखर पर नाहन की ओर बढ़ता सफर नीचे
के विहंगम दृश्य से आल्हादित करता है। नीचे दूर-दूर तक फैली हरी-भरी घाटी और मार्ग
की मनोरम दृश्यावली निश्चित रुप से सफर में नया रस घोल रही थी।
नाहन बस स्टैंड पर कुछ देर रुकने के बाद पहाड़ से नीचे उतरते हुए वाया
अम्ब, नारायण गढ़ा आदि स्थानों से होते पंचकुला से चण्डीगढ़ शहर में प्रवेश होता
है। सिटी ब्यूटीफुल के दर्शन निश्चित रुप में सदैव ही सुखद अनुभव रहता है। माँ
चण्डी देवी के नाम से चण्डीगढ़ का शहर पड़ा है। जिसका मंदिर पास के चण्डीमाजरा
स्थान पर है। यहाँ से गुजरते हुए आदिशक्ति का भाव सुमरण के साथ ही शहर में प्रवेश
होता है।
रास्ते में आम के बगीचों के बीच काफी देर तक सफर एक नया अनुभव रहता
है। इस बगीचे की कहानी तो मालूम नहीं, लेकिन इसके बीच सफर एक सुखद अहसास दिलाता
है। मेहनतकश बागवानों की किसानी संघर्ष की याद दिलाता है।
थोड़ी देर में चण्डीगढ़ 43 सेक्टर पहुँचते हैं, जहाँ नया आइएसबीटी
स्टेशन है। कुछ देर रिफ्रेश होने के बाद यहाँ से सफर आगे बढ़ता है। इस तरह आज दिन
के उजाले में चण्डीगढ़ शहर के दर्शन करते हुए पंचकुला साइड से एंटर होते हैं और
मोहाली साईड से बाहर निकलते हैं। चण्डीगढ़ को सिटी ब्यूटीफुल क्यों कहा जाता है,
राह के प्राकृतिक नज़ारों, सुव्यवस्थित टॉउन प्लानिंग को देखकर स्पष्ट होता है। रास्ते
में चौराहे पर बस के जाम में खड़ा रहने के चलते थोड़ा गर्मी का अहसास भी हो रहा था।
बस स्टैंड पर पहुंच कर कोल्ड कॉफी के साथ इसकी कुछ भरपाई करते हैं।
दिन के उजाले में मोहाली से गुजरते हुए रुपनगर (रोपड़) को पार करते
हैं, बीच में ब्यास-सतलुज नदी के सम्मिलित जल की नीली धारा वाली नहर को पार करते
हैं और हमारी बस रुकती है, कीरतपुर के लगभग 4 किमी पहले....स्थान पर, जो पंजाबी
जायके वाले ढावों के लिए प्रख्यात है। हमारी बस भी शुद्ध वैष्णों ढावे के सामने
खड़ी होती है। यहाँ की पंजाबी थाली व अन्त में लस्सी के गिलास के साथ पूर्णाहुति
करते हैं और यहाँ बाहर काउंटर पर खड़े बंधु से बात कर अपनी सहज जिज्ञासाओं को शांत
करते हैं।
स्थान की विशेषता पूछने पर पता चला कि यह इलाका अन्न उत्पादन के लिए
प्रख्यात है, क्योंकि यहाँ की उर्बर भूमि और जल की प्रचुरता के कारण ऐसा संभव रहा
है। अतः यहाँ लोगों का प्रमुख पेशा अन्न उत्पादन के साथ ढावों के माध्यम से अपने
उत्पादों का व्यवसाय है। अपनी गाय-भैंसों के साथ यहाँ दूर-दही व घी की भी प्रचुरता
रहती है। अपने खेतों से साग-सब्जी व दाल आदि शुद्ध रुप में सहजता से उपलब्ध रहती
है। जलस्रोत के रुप में पास बहती नहर व नदी है। इस प्राकृतिक जल व खाद्य उत्पादन
के कारण संभवतः यहाँ के भोजन में एक विशेष स्वाद रहता है।
ढावे के परिसर में ही पास ग्रामीण परिवेश के मध्य खड़ी गाय, बछड़े के
बूत राहगीरों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। जहाँ सेल्फी के लिए लोगों की भीड़ लगी
थी। खासकर महिलाएं बाल्टी हाथ में लेकर गाय को दुहने का अभिनय कर रही थी और रील
बनाकर जीवन को धन्य अनुभव कर रही थी। बच्चे भी इसका पूरा आनन्द लेते दिख रहे थे।
उनके लिए खेलने के लिए झूले से लेकर स्लाइडिंग स्लोप्स की मिनी पार्क जैसी सुविधा
पास में थी। हालांकि यहाँ पर्याप्त गर्मी का अहसास हो रहा था, लेकिन ठंडी लस्सी के
साथ इसको बैलेंस करते हैं।
भोजन से तृप्त होकर सभी बस में चढ़ते हैं और कुछ ही देर में कीरतपुर
साहिब पार करते हैं। हमारे दिन में सफर करने का वास्तविक मकसद अगले कुछ मिनटों में
पूरा होने वाला था। मालूम हो कि पुराना रुट वाया पहाड़ी के टॉप पर स्वारघाट, फिर
कई घाटी-मोड़ व पुलों को पारकर बिलासपुर शहर, आगे घाघस तथा सतलुज नदी के उपर
स्लापड़ पुल पार कर पूरा होता था। नया रुट पहाड़ों को खोदकर बनाई गई लगभग आधा
दर्जन सुरंगों के कारण वाइपास वाला है, इससे सफर लगभग दो घंटे कम हो गया है। इस
रुट पर पुराने कोई स्टेशन नहीं आते। बल्कि सतलुज नदी व इसके भाखडा बाँध पर रोकने
से बनी गोविंद सागर झील (हालाँकि इस समय जल सामान्य स्तर पर था, सो झील का स्वरुप
महज नदी के प्रवाह तक सीमित था)की
परिक्रमा करता हुआ एक नया अनुभव रहा।
रास्ते में पड़ते नए गाँव, खेत-खलिहान, पुल आदि हमारी पहली दृष्टि के
लिए कौतुक का विषय थे, जानने की कोशिश कर रहा था कि पुराने रुट से हम कितना पास या
दूर सफर कर रहे हैं। क्योकि बीच में एक तिराहें पर शिमला जाने का भी साइनबोर्ड लगा
था। और आगे पुल को पार करते ही बिलासपुर शहर के भी दूरदर्शन हो रहे थे। इसके साथ
स्पष्ट था कि हम बिलासपुर के एक दम दूसरी ओर सतलुज नदी के किनारे समानान्तर मार्ग
से आगे बढ़ रहे थे।
जो पहाडियों के आंचल में बसे गाँवों-कसवों के मध्य आगे बढ़ता हुआ आगे
एक टलस से गुजरता है। अब सामने घाघस की सीमेंट फैक्ट्री के दूरदर्शन हो रहे थे।
अतः स्पष्ट था कि हम घाघस और सलापड़ के समानान्तर चल रहे थे। आगे पुनः एक सुरंग से
गुजरते हुए हम हरावाग के पास कहीं पहुंचते हैं, जहाँ थोड़ी देर में आगे सुन्दरनगर
शहर आता है। आगे का सफर पुराने मार्ग से होकर था। हालाँकि पता चला कि इसमें भी
सुरंगे बन रहीं हैं और भविष्य में और शॉर्टकट वाइपास बनने बाले हैं।
आज हमारा सफर सुंदरनगर से नैर चॉक और फिर मंडी पहुंचता है। शाम हो चली
थी। यहाँ से पंडोह की ओर बढ़ते हैं। फिर डैम को पाकर आगे सुरंग के रास्ते बाहर
थलौट के पास निकलते हैं, अंत में एक सुरंग को पार कर आउट आता है, जिसका जिक्र हम
एक अन्य ब्लॉग व वीडियो में कर चुके हैं। शाम का अंधेरा छा चुका था। आगे पनारसा,
नगवाईं, बजौरा और भुंतर पार करते हुए ढालपुर मैदान और फिर कुल्लू आता है। बस
मानाली जा रही थी, जो सेऊबाग राइट बैंक पौने नौ बजे पहुंचती है। वहाँ अपने भाई संग
बाहन में नौ बजे घर पहुंचता हूँ। इस तरह सौलह-सत्रह घंटे का थकाउ किंतु यादगार बस
का सफर पूरा होता है।
घर के सदस्यों को मिलने के बाद गर्मजल में स्नान के साथ सफर की थकान
दूर होती है। और आज के सफर में नए रुट को दिन के उजाले में प्रत्यक्ष अनुभव कर
रोमाँचित हो रहा था कि आज रुट का नक्शा मेरे दिमाग में क्लीयर हो गया है। जो पिछले
कई वर्षों से मेरे लिए प्रश्नों से भरा हुआ एक चक्रव्यूह बना हुआ था।
आज बहुत समय बाद देवप्रयाग तक जाने का संयोग बन
रहा था। संयोग कहें, या की संगम का बुलावा। जॉलिग्रांट अस्तपताल में पारिवारिक
उपचार के लिए गया था, ऑनलाइन संगोष्ठी में प्रतिभाग की योजना थी, लेकिन गोष्ठी के
संयोजक डॉ. स्नेहीजी से संवाद के बाद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि लगा ऑफलाइन ही
इसमें प्रतिभाग करना बेहतर रहेगा और परिस्थितियाँ भी अनुकूल बनती गई। यह सब दैव
कृपा व संगम तीर्थ का आवाह्न मान हम दोपहरी में सफर पर निकल पड़ते हैं।
साथ में युवा शिक्षक डॉ. दिलीप सराह थे।
हरिद्वार से देवप्रय़ाग तक काफी अर्से बाद जा रहे थे, सो रास्ते में सड़कों पर हुए
कार्य को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि सड़कें काफी चौड़ी हो चुकी हैं, फोरलेन पर
कार्य जोरों से चल रहा है। ऋषिकेश के पास वीकेंड के कारण थोड़ा जाम रहा, लेकिन आगे
का सफर एक दम सपाट एवं सुखद रहा। एक-दो स्थान पर भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों पर चल
रहे कार्य के कारण थोड़ा अबरोध अवश्य मिला। कुल मिलाकर हम सवा तीन घंटे में, साढ़े
पाँच बजे तक देवप्रयाग पहुँच जाते हैं।
रास्ते में व्यासी, कोडियाला जैसे चिरपरिचित स्टेशन
आते हैं, जहाँ यात्री चाय-नाश्ता के लिए रुकते हैं। फिर शिवपुरी आता है, जहाँ
चम्बा की ओर से सुरकुंडा पहाड़ियों से निस्सृत हेम्वल नदी गुजरती है और गंगाजी में
समा जाती है। इन्हीं के बीच बजी जंपिंग के कुछ प्रयोग चलते हैं, जो शाम की चमचमाती
रोशनियों में एक अलग ही नज़ारा पेश करते हैं। यहीं से रिवर केंपिंग साइट्स तथा
राफ्टिग की भी शुरुआत होती, जो बाहर से आए पर्यटकों के बीच साहसिक रोमाँच का एक
लोकप्रिय शग्ल रहता है।
रास्ते में तीन पानी स्थान भी उल्लेखनीय हैं,
जहाँ कभी जल के तीन स्रोत थे। हम भी एक स्रोत से जल भरते हैं, जल एकदम ठण्डा व
स्वाद में भी बेहतरीन निकला। आगे रास्ते में रेलमार्ग के कार्य का भी दर्शन होता
है, जहाँ स्टेशन के लिए वृहद संरचना जुटाई जा रही है और गंगाजी के पार सुरंग से
रास्ता बनने की तैयारी दिखी।
रास्ते भर पहाड़ों के शिखर व आंचल में बसे घर-गाँव
हमेशा की तरह हमे रोमाँचित करते रहे। प्रश्न एक ही उठता रहा कि बिमार होने पर यहाँ
के लोग किस तरह अस्तपाल पहुँचते होंगे। और बच्चों के पढ़ाई की व्यवस्था कैसे होती
होगी। हालाँकि अधिकांश गाँव तक सड़कों का जाल बिछा दिख रहा था, कुछ ही घर सड़कों
से काफी दूर दिख रहे थे।
देवप्रयाग पहुँचते ही संगम के दूरदर्शन होते
हैं, देवप्रयाग बस स्टेंड से पहले ही हमारा वाहन दायीं ओर मुड़ जाता है, सामने
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय का विहंगम परिसर ध्यान आकर्षित कर रहा था। हर
यात्री यहाँ से गुजरते हुए इस नवनिर्मित विश्वविद्यालय के भव्य परिसर को देखते ही
कुछ पल के लिए आश्चर्यचकित होकर स्तम्भित हुए बिना नहीं रह सकता।
थोड़ी देर में नीचे गंगा नदी पर पुल पार कर हम कुछ
मिनट में विश्वविद्याल के गेस्ट हाउस के सामने पहुँचते हैं, जो संभवतः परिसर का
पहला भवन भी है। यहाँ फ्रेश होकर हम बाहर कैंपस के दर्शन के लिए निकलते हैं। शहर
के प्रदूषण से दूर यहाँ के एकांतिक परिसर की शुद्ध आवोहवा किसी वरदान से कम नहीं
लग रही थी। कैंपस की लोकेशन ऐसी जगह है, जहाँ हर पल हवा के तेज झौंके बहते रहते
हैं। इस गर्मी के मौसम में तो यह बहुत सुकूनदायी लग रहा था लेकिन हम कल्पना सर्दी
के मौसम की कर रहे थे, जब यहाँ विचरण करना काफी चुनौतीपूर्ण रहता होगा।
सड़क के नीचे अकादमिक ब्लॉक के भव्य भवन दिखे,
सड़क के ऊपर पहाड़ी के आंचल में हॉस्टल के दर्शनीय भवनों की श्रृंखला तथा बीच में
खेल का चौड़ा मैदान। साईड़ में नीचे दक्षिण की ओर स्टाफ क्वार्टर। शाम हो चुकी थी,
कैंपस की कैंटीन व स्टोर बंद हो चुके थे। सो हम कैंपस के बाहर निकल कर थोड़ा नीचे
मार्केट में पहुँचते हैं। साबुन सर्फ आदि दैनिक आवश्यकताओं के कुछ सामान खरीदते
हैं। थोड़ा नीचे अलकनंदा नदी पर एक पुराना पुल दिख रहा था, उस तक पहुँचने का भी
दुस्साहस कर बैठते हैं, लेकिन पुल के बीच से नीचे संगम काफी दूर लगा, सो दूर से ही
प्रणाम कर उलटे पाँव बापिस होते हैं और राह की खड़ी चढ़ाई के संग कैंपस तक पहुँचते
हैं।
ऐसे में कपड़े पसीने से तर हो चुके थे। फ्रेश
होकर गर्मागर्म चाय पीते हैं। गेस्ट हाउस में किचन, दूध, चाय पत्ती, व चीनी आदि की
उम्दा व्यस्था थी। साथ में आए डॉ. दिलीपजी की चाय बनाने की विशेषज्ञता से आज
परिचित हुए। एकाउटेंसी से जुड़े होने के कारण वे चाय के अभ्यस्त हैं और चाय बनाने
में भी एक्सपर्ट। थके होने पर उम्दा चाय की प्याली निसंदेह रुप से सदैव एक तरोताजा
करने वाला अनुभव रहती है। सो दो दिन इसका भरपूर लाभ लेते रहे। हम यहाँ चाय की
वकालत नहीं कर रहे, इसके अन्य स्वस्थ विकल्प भी आजमाए जा सकते हैं, लेकिन देश, काल
परिस्थिति के अनुरुप अपने यथार्थ का यहाँ वर्णन कर रहे हैं।
सांय एक सत्र फेकल्टी डेवेल्पमेंट पर होता है,
विषय था – शिक्षकों का सर्वांगीण विकास एवं गुणवत्तापरक शिक्षा। लेक्चर से अधिक यह
अपने अनुभवों को साझा करने का उपक्रम था, जिसे लगा सभी प्रतिभागियों ने बेहतरीन
ढंग से ह्दयंगम किया।
रात को भोजनोपरान्त गेस्ट हाउस में शयन का क्रम
बनता है। गेस्ट हाउस की वाल्कनी से नीचे वालगंगा के दर्शन प्रत्यक्ष थे। थोड़ी ही
दूरी में भगीरथी और अलकनन्दा के संगम होता है, जो हॉस्टल से दृश्य नहीं था, लेकिन यहाँ
गंगा मैया का बालरुप हमारे सामने से कुछ दूरी पर प्रत्यक्ष प्रवाहमान था। हम
वाल्कनी में इसका दर्शन कर धन्य अनुभव कर रहे थे। और संगम की तीर्थ चेतना की ऊर्जा
यहाँ तक जैसे हमारी रुह को स्पर्श कर रही थी। सामने पहाड़ों में बसे गाँवों की
टिमटिमाती रोशनी हमें अपने गृह प्रदेश में बचपन की यादों को ताजा कर रही थी। ऐसा
ही दृश्य पिछले वर्ष गंगोत्री धाम यात्रा के दौरान धराली (कल्प केदार) से सामने मुखबा
गाँव के हुए थे।
इन्हीं भावों के सागर में गोते लगाते हुए रात बीती।
कल की तैयारियाँ भी चल रही थी, सो रात को शयन में थोड़ा विलम्ब हो जाता है, लेकिन नींद
में उपरोक्त भाव हॉवी रहे। औऱ प्रातः ब्रह्ममुहुर्त में ही उठने का क्रम बनता है।
स्नान, ध्यान व अपनी अकादमिक तैयारी के साथ फिर थोड़ा विश्राम करते हैं। छः बजे
चाय की चुस्की के साथ बाहर मोर्निंग वाक होती है। पहाड़ियों से घिरे विश्वविद्याल
के कैंपस और नीचे देवप्रयाग के संगम, उस पार तमाम पहाड़ी गाँव, सबका मनोरम दृश्य
निहारते हुए आज की प्रातः हमारे लिए एक अद्वितीय एवं यादगार अनुभव थी, जो चिरकाल
तक अंकित रहेगी।
इसी क्रम में नाश्ता के बाद दिन की बाकि
प्रस्तुतियाँ होती हैं। एक एनईपी-2020 के अनुरुप पाठ्यक्रम निर्माण और आउटकम
आधारित शिक्षा पर तथा दूसरी मूल्यपर शिक्षा, स्व-नेतृत्व व अकादमिक-प्रशासनिक
उत्कृष्टता पर थी। ब्लॉग लेखन पर भी एक रोचक सत्र चला, जिसमें लगभग सभी
प्रतिभागियों के ब्लॉग तैयार हो गए थे। सत्र समाप्ति के बाद सबसे विदा लेते हुए हम
हॉस्टल आते हैं। लगा कि परिसर में जैसे हम शिक्षा, संस्कार और उत्कृष्टता की
त्रिवेणीं में डुबकी लगा रहे हैं। हालाँकि ये एक बीजारोपण जैसा संयोग लगा, जिसकी
सुखद परिणतियाँ तो काल के गर्भ में छिपी हुई हैं।
यहाँ पिछले आगमन का भी संक्षिप्त चर्चा करना
चाहूँगा, जब हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रविंद्र बर्तवालजी के निमन्त्रण पर भारतीय
संदर्भ में शोध-अनुसंधान एवं भाषाई विमर्श (हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी एवं लोक
भाषा के संदर्भ में) विषय पर एक गोष्ठी के अंतर्गत 30 जनवरी, 2017 के दिन यहाँ आए
थे। हालाँकि तब यह परिसर निर्माणाधीन था और उस पार ही सड़क के किनारे एक होटल में
कार्यक्रम हुआ था।
शाम को ही आज बापिसी का क्रम था। सो अपने वाहन
से नीचे पुल से होते हुए गंगा नदी के किनारे इसे रोकते हैं। दो पुल पार कर संगम तक
पहुँचते हैं। राह के परिक्रमा पथ का वीडियो आप नीचे देख सकते हैं और रास्ते के
मनोरम दृश्य को अनुभव कर सकते हैं, जहाँ एक ओर श्रीनगर की ओर से आ रही अलकन्दा नदी
को पार करते हुए नीचे देवप्रयाग संगम का विहंगम दृश्य दर्शनीय है तो ऊपर केंद्रीय
संस्कृत विश्वविद्यालय का भव्य परिसर।
संगम का दृश्य को स्वयं में मनोहारी था, तीर्थ
चेतना की ऊर्जा से आवेशित। इसमें डुबकी लगा कर लोग धन्य अनुभव कर रहे थे। हम तीर्थ
का पावन जल साथ लाते हैं। यहाँ सूर्य और चंद्र गुफा के भी दर्शन किए और बापिस वाहन
में आते हैं। रास्ते में ही भगवान राम का मंदिर पड़ता है। मान्यता है कि रावण के
बध के पश्चात प्रायश्चित स्वरुप वे यहाँ रुक कर प्रायश्चित तप किए थे। देवप्रयाग
और ऋषिकेश के मध्य वशिष्ट गुफा पड़ती है। लक्ष्मण झूला के पास लक्ष्मण तथा ऋषिकेश
में भरत व शत्रुधन की तपःस्थली मानी जाती है।
बापिसी में पुल को पार करते हुए केंदीय संस्कृत
विश्वविद्यालय परिसर के विहंगम दर्शन होते हैं। इसको विदा करते हुए, यादगार
स्मृतियों के साथ अपने गन्तव्य की ओर कूच करते हैं। रास्ते भर गढ़वाल हिमालय की
पहाडियों के मध्य सफर का रोमाँचक अनुभव लेते रहे। आप भी नीचे के वीडियो को देखकर
इसमें भागीदार बन सकते हैं। कहीं नीचे घाटी में गंगाजी के दर्शन होते हैं, तो कहीं
लंगूर सड़क के किनारे दिन भर की थकान मिटा रहे थे।
रास्ते में हमारे चालक रवि राह में पड़ने वाले
पर्यटक स्थलों के प्रति हमारी जिज्ञासाओं का समाधान करते रहे, जिनका जिक्र हम
यात्रा के प्रारम्भ में भी कर चुके हैं। इस तरह शिवपुरी के पास के बजी जंपिग साइट,
राफ्टिंग जोन, कोडियाला-ब्यासी, दुगढ़ा (नीरझरना) आदि से होकर ऋषिकेश पहुँचते हैं,
जहाँ शहर की टिमटिमाती रोशनियाँ गंगाजी में एक अद्भुत दृश्य पेश कर रही थी। ऋषिकेश
के ट्रेफिक को पार कर हम रात सवा नौ तक विश्वविद्याल परिसर पहुंचते हैं।
सफर का सार यह रहा कि सरकार जिस तरह से सड़कों पर
कार्य कर रही है वह सराहनीय है। इससे सफर का समय कम हो रहा है और अधिक सुकूनदायी भी
बन रहा है, बस ध्यान साबधानी पूर्वक ड्राइविंग का है। रेल्वे ट्रेक खुलने से
पर्यटन का नया अध्याय शुरु होने वाला है। गंगा में राफ्टिंग व अन्य पर्यटन को
थोड़ा इकोफ्रेंडली बनाने की आवश्यकता है। जिम्मेदार पर्यटन समय की माँग है। बाकि
अकादमिक कार्यक्रम एवं आदान-प्रदान होते रहने चाहिए, जिससे हमारे शिक्षक श्रेष्ठतम
शिक्षा के साथ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्टता की ओर बढ़ते हुए एक सशक्त
भारत, समृद्ध प्रदेश एवं संस्कारवान पीढ़ी के निर्माण की परिकल्पना को साकार कर
सके। पूरा विश्व आशाभरी निगाहों से भारत की ओऱ देख रहा है।
देवप्रयाग से ऋषिकेश तक का वीडियो नीचे देख सकते हैं -
श्रीनगर में पहली रात बीती, 1-2 डिग्री सेंटीग्रेटतापमान के बीच, लेकिन ठण्ड का अहसास कुछ अधिक
नहीं हुआ। शायद यह बिजली से गर्म होने वाली तलाई का कमाल था, जिससे बिस्तर गर्म
रहा। सुबह वर्कशॉप के लिए 9 बजे का समय दिया गया था। इसके लिए काश्मीर यूनिवर्सिटी
के ऑडिटोरियम पहुँचना था, जो यहाँ से अढाई किमी दूरी पर था और लगभग आधा-पौन घंटे
का पैदल रास्ता था। रास्ते में डल झील से होकर इसका रास्ता जाता है और डल झील के
किनारे ही पास में यह विश्वविद्यालय बसा है। होटल में नाश्ता कर हम पैदल ही चल
पड़ते हैं।
कुछ मिनट में हम डल झील के किनारे थे। झील का विहंगम दृश्य देखते ही
बन रहा था। रास्ते में सुरक्षा गार्डों का पूरा पहरा दिखा। आगे रास्ते में पहले
गेट से हम यूनिवर्सिटी में प्रवेश करते हैं। कोई अधिक पूछताछ नहीं हुई, सहज रुप
में प्रवेश मिलता है। भीतर सुरक्षा गार्डों से ऑडिटोरियम का रास्ता पूछ कर बताई गई
दिशा में बढ़ चलते हैं।
पगडंडी से होकर उस पार मुख्य सड़क तक पहुँचना था। बीच में चिनार का
जंगल मिला।
इस समय पत्ते नाम मात्र के बचे थे। लेकिन यह जंगल, इसके बीच की नीरव
शांति और आसमान छूते चिनार के पेड़ बहुत सुकून दे रहे थे। दृश्य को मोबाइल में
कैप्चर किए बिना नहीं रह सका। आगे एक-दो विद्यार्थी पैदल जा रहे थे। बीच में एक
बालक साइकल में सरपट दौड़ता दिखा। कुछ ही मिनट में हम पगडंडी के पार कैंपस के
मुख्य मार्ग पर थे।
सड़क के दोनों ओर देवदार के युवा तरुओं की कतारें, जैसे लगा कि इस नव-आगंतुक
का भाव भरा स्वागत कर रही थीं। अपने प्रिय वृक्षों के बीच, शीतल आवोहवा में पाकर
हमें लग रहा था कि जैसे मैं अपने मनभावन लोक में विचरण कर रहा हूँ। यूनिवर्सिटी के
भव्य भवन इस कैंपस की शोभा को चार चाँद लगा रहे थे। सुदूर कैंपस के चारों ओर पर्वत
व इन पर कहीं-कहीं हल्की बर्फ हमें एक नए लोक में विचरण की अनुभूति दे रही थी।
इसी तरह अपने भावों में डूबे कदमताल करते हुए लगभग आधा घण्टे में हम
ऑडिटोरियम के बाहर खड़े थे। इसके परिसर में लगे रंग-विरंगे झंडे जैसा सबका स्वागत
कर रहे थे। भवन के बाहर बड़ा सा बैनर आयोजन के मकसद को स्पष्ट कर रहा था। बाहर घास
के आंगन में प्रतिभागियों की भीड़ जुटी थी। हम भी इसमें शामिल होते हैं, उपयुक्त
काउंटर पर पंजीयन करते हैं, वर्कशॉप की किट पाते हैं और एक बेंच पर बैठकर यहाँ का
जायजा लेते हैं।
बग्ल में एक स्थानीय कॉलेज के काश्मीरी शिक्षक से संवाद होता है। उनका
बोलने का विशिष्ट लहजा हमें अच्छा लगा। चर्चा से यहाँ पर उच्च शिक्षा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी-2020) के लागू
होने की स्थिति का भान होता है, जिसमें 40 प्रतिशत ऑनलाइन शिक्षा का प्रावधान रखा
गया है। इसी संदर्भ में आज की कार्यशाला थी।
अंदर भव्य ऑडिटोरियम में प्रवेश कर अपना स्थान ग्रहण करते हैं। यहाँ
पंजाव, चंडीगढ़, हिमाचल, उत्तराखण्ड, लद्दाख व जम्म-काश्मीर राज्यों के उत्तर भारत
के स्वयं नोडल ऑफिसर्ज सहित कालेज के प्रिसिंपल्ज व शिक्षकों को वुलाया गया था।
यूजीसी से चेयरमैन प्रो. मनीश जोशी स्वयं पधारे थे। इनके साथ कई विश्वविद्यालयों
के वाइस-चांसलर, डीन्ज, आईआईटी, आईआईएम के प्रतिष्ठित प्रोफेसर्ज एवं शिक्षाविद
इसमें विशेषज्ञ के रुप में आए थे।
काश्मीरी स्टाइल में मंच पर दीप प्रज्जबलन हमारे लिए एक नई चीज थी। और
कार्य़शाला के प्रारम्भ में युनिवर्सिटी का कुलगीत नया रस घोलता है। यूजीसी चेयरमेन
महोदय के उद्बोधन से पता चला कि देश भर के 1200 विश्वविद्यालयों में अभी मात्र 350
ही स्वयं (SWAYAM) के ऑनलाइन कोर्सेज को अपनाए हुए हैं। जिनकी
संख्या में वृद्धि की जाने की आवश्यकता है।
सभी शिक्षकों व शिक्षण संस्थानों को बढ़चढ़ कर स्वयं पर उपलब्ध
निःशुल्क 1515 ऑनलाइन कोर्स को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। साथ ही दिनभर
गुणवत्तापरक शिक्षा के प्रतिमानों पर गंभीर विचार-विमर्श हुआ। और विभिन्न उच्च
शिक्षण संस्थानों की वेस्ट प्रेक्टिसिज से परिचित होने का अवसर मिला।
दिन भर कई सत्रों में विचार मंथन चलता रहा। चाय व लंच के सिलसिले के
बीच शाम को चार बजे वर्कशॉप का समापन होता है।
यहाँ से देवदार के युवा तरुओं की कतारों से जड़े कैंपस से बापिस होते
हुए हम पहले गेट से बाहर निकलते हैं। सामने पर्वत श्रृंखलाएं प्रत्यक्ष थी।
यूनिवर्सिटी गेट के बाहर थोड़ा ऊपर आकर, मुख्य सड़क के उस पार नीचे पार्क में
प्रवेश करते हैं, जहाँ से डल झील का विहंगम दृश्य स्पष्ट था। झील में अपनी नाव में
बैठा अकेला नाविक इसको खवेते हुए जैसे जीवन का संदेश दे रहा था कि, ओ नदिया चले
चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा, तुझे चलना होगा, तुझे चलना होगा...।
पार्क के दूसरे छोर तक टहलते हुए झील को कई एंग्ल से देखते हैं, यथासंभव कैप्चर
करते हैं। और फिर बाहर निकलकर अपने होटल की ओर चल पड़ते हैं।
डल झील के उस पार के पर्वतों, शिखर पर जमीं सफेद बर्फ औऱ इसकी गोदी
में बसी आवादी बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। झील के ऊपर से उड़ते चहचाते
पक्षियों के झुंड हवा में मस्ती का माहौल बना रहे थे। पार्क में बैठे परिवार व
दोस्तों के समूह निश्चित भाव से आपसी संवाद कर रहे थे। यहाँ का ठहरा सा शांत जीवन
सुकून दे रहा था। बस झील का गंदला पानी इसमें थोड़ा व्यवधान पैदा कर रहा था। लगा
कि काश यह निर्मल होता, तो कितना बेहतर होता।
होटल में स्वागत कक्ष में पहुँचकर कल का हिसाब-किताब करते हैं और यहाँ
बैठे दक्षिण भारत के यात्रियों की समूह चर्चा सुन पता चला कि ये लोग आगे गुलमर्ग
के लिए जा रहे थे। इसी तरह आसपास पहलगाँव व सोनमार्ग लोकप्रिय डेस्टिनेशन हैं,
जिनमें सोनमर्ग अमरनाथ तीर्थयात्रा की राह का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहता है। होटल
से इन स्थलों के लिए घुमाने की भी उचित व्यवस्था दिखी।
इस बार समय सीमित होने के कारण बाहर श्रीनगर एक्सपलोअर करने की
संभावना न के बराबर थी। कल सुबह साढ़े सात बजे ही हमारी बस बुक थी। अतः अपनी
जिज्ञासा को शांत करने के लिए हम कमरे में जाकर काश्मीर को इंटरनेट पर ही
एक्सप्लोअर करते हैं। जिसमें श्रीनगर की लाइफ-लाइन झेलम नदी के बारे में खोजते-खोजते
पता चला कि यह बीच में वुलर लेक से होकर गुजरती है, जो एशिया की सबसे बड़ी ताजे जल
की झील है। इसका उद्गम स्थल बेरीनाग हमें रोमाँच का शिखर लगा, जहाँ भारी मात्रा
में पानी एक वृहद कुँड से निकलते हुए तीव्र वेग के साथ बाहर प्रवाहित होता है, वह
चकित करने वाला है। लगा कि कभी समय निकालकर काश्मीर के ऐसे प्राकृतिक एवं रोमाँचक
स्थलों को देखने अवश्य आएंगे।
अगली सुबह ऑटो-टेक्सी से टीआरसी बस स्टैंड पहुँचते हैं। सामने श्री आदि शंकराचार्य मंदिर पहाड़ के शिखर पर प्रत्यक्ष था। यथासंभव इसको केप्चर करते हैं।
मालूम हो श्रीअरविंद को वर्ष 1903 में इसी मंदिर परिसर में शांत ब्रह्म (अनन्त) की
अनुभूति हुई थी, जब उन्होंने विधिवत योग साधना का अभ्यास प्रारम्भ नहीं किया था।
वर्ष 1898 में स्वामी विवेकानन्द भी अपनी काश्मीर यात्राओं के दौरान यहाँ पधारे
थे। और अमरनाथ में उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए थे और उन्हें इच्छामृत्यु का
वरदान मिला था।
आज हमारे लिए इनके दूरदर्शन ही पर्याप्त थे। अपना भाव निवेदन कर हम बस
में बैठते हैं।
हमने जो बस ऑनलाइन बुक की थी, उसमें मात्र तीन ही सीटें भरी थीं। वाकि
बस खाली थी। काउटंर पर ही सीधे इनकी बुकिंग हो रही थी, जिनका किराया भी कुछ कम था।
श्रीनगर से जम्मु जा रहे या जम्मु से श्रीनगर आ रहे यात्रियों को हमारा सुझाव है
कि संभव हो तो वे बुकिंग की बजाए बस स्टैंड से सीधे काउंटर पर बसें बुक करें और वह
भी किफायती दामों में। सोलो ट्रेवलिंग में ऐसे रोमांचक प्रयोग कठिन नहीं। अपनी
मनपसंद सीट तथा परिवार के साथ सफर में ऐसे प्रयोग थोड़े रिस्की हो सकते हैं।
ठीक 8 बजे यहाँ से बस चल पड़ती है। अब हम बस के वायीं ओर थे, जो नजारे
आते समय नहीं देख पाए थे, उनको देखने का संयोग बन रहा था। रास्ते में श्रीनगर शहर
के पर्वतों के समीप आगे बढ़ते हुए, बीच में जेहलम नदी को पार करते हुए शहर के बाहर
निकलते हैं।
आगे मार्ग में खेत, घाटी, पर्वत, नदी, गाँव-कस्वे, सबको और अच्छी तरह
से देख पा रहे थे। काश्मीर जहाँ एक ओर हमारे कैमरे से कैप्चर हो रहा था, वहीं दूसरी
ओर हमारी आंखों से सीधे हमारे चित्त में गहरी छाप छोड़ रहा था।
सही में लग रहा था कि जैसे ईश्वर में तवीयत में काश्मीर को गढ़ा हो।
यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य, उर्बर भूमि, प्राकृतिक उत्पादों की असीम संभावनाएं,
पर्यटन के अकूत पोटेंशियल सब मिलाकर इसको स्वर्ग सा रुप दे सकता है। आवश्यकता बस
यहाँ अमन चैन शांति की है व समझदार नेतृत्व की, जो अपने स्वार्थ से अधिक जनता के
हित को समझते हों।
एक सज्जन मिले अगली सीट में, जो जम्मु जा रहे थे, इनसे मोटी-मोटी
जानकारी रास्ते भर मिलती रही। मैं जिस क्रिकेट बल्ले को पोपलर के पेड़ों से जोड़
कर देख रहा था वह गल्त निकला, इन्होंने स्पष्ट किया कि ये बैट काश्मीरी बिल्लो पेड़
की लकड़ी से बनते हैं।
काजी कुंड में बस नाश्ता के लिए रुकती है। वहाँ आलू-पराँठा, आलू की
सब्जी व चाय का नाश्ता करते हैं, जो यहाँ का लोकप्रिय नाश्ता प्रतीत हुआ। साथ में स्वाद
को बैलेंस करने के लिए दही लेते हैं। यहाँ से अखरोट 200 से 250 रुपए किलो में बिक
रहे थे। हम भी प्रसाद स्वरुप व यादगार के लिए कुछ अखरोट लेते हैं, जो स्वाद में
बहुत टेस्टी निकले। लगा कि यहाँ की मिट्टी में कुछ बात तो है, जो अखरोट इतने
टेस्टी रहे। और काश्मीर के सेब भी हमारे मनपसन्द फलों में हैं। जबकि हमारे गृह
प्रदेश में भी सेब होते हैं, लेकिन स्वाद व रसीलेपन में काश्मीर के सेब का कोई
जबाव नहीं रहता।
काजीकुंड से आगे फिर हमें बर्फ से ढ़के पहाड़ों को नजदीक से दर्शन
होते हैं, जिसको यथासंभव कैमरे व चित्त में कैप्चर करते हुए आगे बढ़ते हैं। सुरंग
के पार सुंदर वादियों से होते हुए वनिहाल रेल्वे-स्टेशन को पार करते हैं और इसी के
साथ काश्मीर घाटी की वादियाँ क्रमिक रुप से सिमटती जाती हैं
और संकरी घाटी से होते
हुए कई सुरंगों को पार करते हुए रामवन पहुँचते हैं। इस बार हम वाईं ओर से इसके नए
स्वरुप के दर्शन कर रहे थे।
आगे पुल से चनाव नदी का दृश्य देखते ही बन रहा था, जो कुछ देर साथ बना
रहा।
नदी के उस पर पहाड़ियों की गोद में पीछे छिपी घाटियाँ, वहाँ से निस्सृत हो
रहे झरने मन में कौतुक व रोमाँच का भाव जगा रहा थे। आगे फिर टनल पार कर थोड़ी देर
में बस चेनानी स्थान पर लंच के लिए रुकती है। यहाँ नए ढावे में राजमाह चावल औऱ दही
का लंच करते हैं। दही के स्थान पर देसी घी का भी विकल्प उपलब्ध था।
फिर यहाँ की फोरलेन सड़क पर बस सरपट दौड़ते हुए कटरा की ओर बढ़ती है। रास्ते
भर सडक के किनारे नीचे घाटी में छोटी सी नदी व उस पार वाईं ओर से गाँव, पहाडियों व
जंगलों को समीप से निहारते रहे, जो जाते समय हमारे लिए दुर्लभ थे। कटरा को पार
करते हुए फिर थोड़ी देर में जम्मु शहर में प्रवेश करते हैं। जाते समय पुल के नीचे
बह रहा गंदा नाला जम्मु तवी नदी थी। इसकी स्थिति देख थोड़ा विचलन हुआ कि नदी की
ऐसी स्थिति इंसान कैसे कर देता है।
शहर से गुजरते हुए राह में वाईं ओर जम्मु विश्वविद्यालय के दीदार होते
हैं और फिर आता है रेल्व स्टेशन के बाहर बस का अड्डा। अंदर स्टेशन में जाकर
काश्मीरी सेब लेते हैं और स्टेशन पर थोड़ा विश्राम करते हुए एक सेब काट कर खाते
हैं। इसके रसीले व खीरखंड मिठेपन के साथ मूड रिफ्रेश हो जाता है। फिर बस से मुख्य बस
स्टैंड तक आते हैं। स्टेशन से बसें चलती रहती हैं, मात्र 20 रुपए में लगभग चार
किमी का सफर तय करवाती हैं। आटों में शायद 2-300 रुपए से कम क्या लेते होंगे।
लोकल बस स्टैंड में गंदगी का स्रामाज्य हमें सही मायने में विचलित करता
है। इसे किसी तरह से पार करते हुए हम इंटर स्टेट बस स्टैंड पहुँचते हैं, जिसकी
स्थिति बेहतर थी। काउंटर 9 पर हमें जम्मु-हरिद्वार बस मिली। बस में एक पंडितजी
मिले जो हरिद्वार अस्थि विसर्जन करने जा रहे थे। इनसे चर्चा करने पर इस रुट की कई
जानकारियाँ मिली।
साढ़े पाँच बजे बस चल पड़ती है। जम्मु से पठानकोट, जालन्धर, लुधियाना
वाई पास, अम्बाला, यमुनानगर, भगवानपुर, रुढकी, बहादरावाद होते हुए 12 घंटे का सफर
पूरा होता है औऱ सुबह 6 बजे हम हरिद्वार पहुँचते हैं। रास्ते में पठानकोट तथा अम्बाला
के समीप बस डिन्नर व चाय के लिए रुकती है।
इस तरह हमारी तीन दिवसीय जम्मु-काश्मीर की यात्रा पूरी होती है। रास्ते
का संक्षिप्त विवरण, भाव-विचार व कुछ उपयोगी जानकारियाँ आपके संज्ञान के लिए
प्रस्तुत हैं, जो शायद पहली वार जम्मु-काश्मीर जा रहे यात्रियों के लिए कुछ काम की
हो सकती है। हमारी पहली काश्मीर यात्रा का यह वृतांत कैसा लगा, अवश्य लिखें। आपके
सुझाव और फीडबैक का हार्दिक स्वागत रहेगा।