रविवार, 31 अगस्त 2025

गणपति बप्पा मोरया

 

भगवान गणेश से जुड़ा प्रेरणा प्रवाह


गणेश उत्सव का दौर चल रहा है, भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से शुरु होने वाला दस दिवसीय यह उत्सव अनन्त चतुर्दशी तक चलता है। कभी महाराष्ट्र में लोकप्रिय यह उत्सव आज लगभग पूरे देश में फैल चुका है और गणपति बप्पा मोरया के जयघोष की दिगंतव्यापी गूंज के साथ विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग और प्राँतों की सीमाओं को पार करते हुए सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समरसता का उत्सव बन चुका है।

माँ पार्वती के मानस पुत्र - गणेशजी आदि शक्ति माँ पार्वती के मानस पुत्र हैं, उनकी संकल्प सृष्टि हैं, जिसका सृजन उन्होंने स्नान के समय द्वारपाल के रुप में अपनी पहरेदारी के लिए किया था। जब महादेव द्वारा गलती से संघर्ष के दौरान इनका सर धड़ से अलग हो जाता है, तो वे प्रायश्चित रुप में शिशु हाथी का सर धड़ पर लगाकर गणेशजी को नया जीवन व रुप देते हैं। और दोनों शिव-शक्ति के वरदान स्वरुप बाल गणेशजी सभी देव शक्तियों में प्रथम पूज्य बनते हैं। तब से सनातन धर्म में हर मांगलिक कार्य के प्रारम्भ में गणेशजी के पूजन का क्रम जुड़ता है। हर कार्य के शुभारम्भ को श्रीगणेश कहना भी इसी पृष्ठभूमि में स्पष्ट होता है।

आध्यात्मिक रुप में गणेश मूलाधार के देवता हैं। मालूम हो कि मूलाधार मानवीय सूक्ष्म शरीर में पहला चक्र पड़ता है, जिसका जागरण आध्यात्मिक प्रगति का शुभारम्भ माना जाता है। मूलाधार के देवता के रुप में भगवान गणेशजी की कृपा से इस चक्र का अर्थात आध्यात्मिक चेतना का जागरण होता है।

तात्विक रुप से भगवान गणेश अचिंत्य, अव्यक्त एवं अनंत हैं, लेकिन भक्तों के लिए इनका स्थूल स्वरुप प्रत्यक्ष है और प्रेरणा प्रवाह से भरा हुआ है।

गणेश जी का रुपाकार अन्य देवशक्तियों से देखने में थोड़ा अलग लगता है, आश्चर्य नहीं कि बच्चे तो गणेशजी को एलीफेंट गोड के नाम से भी पुकारते हैं। उनकी लम्बी सूंड, सूप से चौड़े कान, बड़ा सा पेट, मूषक वाहन, हाथ में पाश-अंकुश लिए वरमुद्रा, मोदक प्रिय गणेशजी सबका ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन इसके गूढ़ रहस्य को न समझ पाने के कारण गणेशजी से जुड़े भाव प्रवाह को ह्दयंगम नहीं कर पाते और इनसे जुड़े आध्यात्मिक लाभ से वंचित रह जाते हैं।

गणेशजी का वाहन मूषक विषयोनमुख चंचल मन का प्रतिनिधि है, जिस पर सवारी कर गणेशजी उसकी विषय लोलुपता पर अंकुश लगाते हैं। ये साधक को काम, क्रोध, लोभ, मोह व परिग्रह जैसी दुष्प्रवृतियों के निग्रह का संदेश देते हैं।  

गणेशजी की लम्बी सूंड, सूप से चौडे कान धीर, गंभीर, सूक्ष्म बुद्धि और सबकी सुनने और सार तत्व को ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं। साथ ही बड़ा पेट दूसरों की बातों व भेद को स्वयं तक रखने व सार्वजनिक न करने की क्षमता की सीख देते हैं।

पाश-अंकुश-वरमुद्रा तम, रज एवं सत गुणों पर विजय के प्रतीक हैं, जो गणेशजी की त्रिगुणातीत शक्ति से जोड़ते हैं और मोदक जीवन की मधुरता एवं आनन्द का प्रतीक हैं। गणेशजी का एक पैर जमीन पर और दूसरा मुड़ा हुआ रहता है, जो सांसारिकता के साथ आध्यात्मिकता के संतुलन का संदेश देते हैं।

गणेशजी जल तत्व के अधिपति देवता भी हैं। कलश में जल की स्थापना के साथ इसमें ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों का आवाहन करते हुए पूजन किया जाता है। इस सूक्ष्म संदेश के साथ गणेशजी प्रतीकात्मक रुप में जल संरक्षण की भी प्रेरणा संदेश देते हैं।

गणेशजी के विविध नामों में भी गूढ़ रहस्य छिपे हैं, जो भक्तों व साधकों को जीवन में सर्वतोमुखी विकास की प्रेरणा देते हैं। इनका विनायक नाम नायकों के स्वामी अर्थात नेतृत्व शक्ति का प्रतीक है। गणाध्यक्ष के रुप में ये सभी गणों के स्वामी अर्थात श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ हैं। इनका एकदन्त स्वरुप एक तत्व की उपासना और ब्रह्मतत्व से एकता की प्रेरणा देता है। धूमकेतु के रुप में ये सफलताओं का चरम और सिद्धि विनायक के रुप में बुद्धि, विवेक और सफलता के प्रतीक माने जाते हैं। तथा विकट रुप में गणेशजी दुष्टों के लिए काल स्वरुप हैं।

इस तरह ऋद्धि-सिद्धि के दात्ता, विघ्नविनाशक गणेशजी मांगलिक कार्यों में प्रथम पूज्या होने का साथ जीवन में समग्र सफलता एवं उत्कर्ष के प्रतीक हैं और गणेश उत्सव में इनके पूजन के साथ परिक्रमा का भी विशेष महत्व माना जाता है। इनके मंदिर में तीन वार परिक्रमा का विधान है। औम गं गणपतये नमः मंत्र के जाप के साथ इसे सम्पन्न किया जा सकता है। और भगवान गणेश का दूसरा लोकप्रिय एवं शक्तिशाली मंत्र है - वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ, निर्विध्न कुरुमेदेवा सर्वकार्येषु सर्वदा। अर्थात्, टेड़ी सुंड वाले विशालकाय, करोड़ों सूर्यों के समान तेजवाले हे देव, आप मेरे सभी कार्यों को हमेशा बिना किसी विघ्न के पूरा करें।


मत भूलना समय की गति, काल की चाल...

 

रख धैर्य अनन्त, आशा अपार...

मत भूलना, याद रखना,

समय की गति, काल की चाल,

सब महाकाल की इच्छा, नहीं कोई इसका अपवाद ।1।


जब समय ठहरा सा लगे, काल पक्ष में न दिखे,

बिरोधियों की दुरभिसंधियाँ सफल होती दिखे,

और मंजिल दृष्टि से ओझल दूर होती दिखे ।2।


सही समय यह अपने गहनतम मूल्याँकन का,

अपनी दुर्बलता को सशक्त करने का,

उड़ान भरने के लिए इंधन एकत्र करने का ।3।


बाकि इतराने दो अपने दर्प-दंभ अहंकार में इनको,

औचित्य को हाशिए में ले जाकर, चैन के गीत गाने दो इन्हें ,

नहीं अधिक लम्बा खेल माया का, बस कर लें थोड़ा इंतजार ।4।


यहाँ कुछ भी नहीं रहता हरदम,

हर चीज के उतार-चढ़ाव का समय तय यहाँ,

और हर घटना, जीत-हार सब सामयिक यहाँ ।5।


कितने तीस मार खान आए यहाँ, कितने गए,

अर्श से फर्श पर गिरकर, शिखरों से भूलुंठित होकर,

काल के गर्त में हर हमेशा के लिए समा गए ।6।


यहाँ भी कुछ ऐसा हो जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं,

रख धैर्य अनन्त, आशा अपार,

अपने स्वधर्म पर अढिग, कर सही समय का इंतजार ।7।


प्रकृति को अपना खेल खेलने दो, कर्मों को अपना चक्रव्यूह रचने दो,

संचित कर्म, प्रारब्ध के विस्फोट से नहीं बच सकता कोई,

बाकि इच्छा महाकाल की, तुम तो औचित्य का दामन थामे रहो ।8



शनिवार, 30 अगस्त 2025

जब आया बुलावा अयोध्या धाम का, भाग-4

गायत्री शक्तिपीठ अयोध्या में कुछ यादगार पल


राममंदिर से बाहर निकलकर वाईं ओर मुढ़ते हुए हम हनुमान गढ़ी की ओर बढ़ते हैं। समय बचाने व नया अनुभव लेने के लिए हम विशेष रिक्शा-वाहन में सवार हो जाते हैं, जो कुछ ही मिनट में हमें हनुमान गढ़ी के बाहर सड़क पर उतार देता है। रास्ते भर दोनों ओर बाजार की सजावट देखने लायक थी और तीर्थयात्रियों की चहचाहट पीछे जैसी ही थी। संकरी गलियों को पार करते हुए हम हनुमान गढ़ी मंदिर के सामने पहुँचते हैं। यह एक पहाड़ी टीले की चोटी पर स्थिति मंदिर है, जिसमें प्रवेश के लिए 58 सीढ़ियों को चढ़ना पड़ता है।

हम भी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पंक्ति में लग जाते हैं, अधिक भीड़ नहीं थी। लेकिन लाइन बीच में ठहरी हुई थी। अभी दोपहर के सवा तीन बजे थे। पता चला कि दर्शन चार बजे से होंगे। सो हम वहीं से भाव निवेदन करते हुए बापिस मुड़ जाते हैं, क्योंकि आज का ही दिन हमारे पास शेष था, कुछ घंटे बचे थे, जिसमें इस धर्म नगरी का आवलोकन करना था।

रास्ते में माथे में चंदन व तिलक छाप लगाने वालों की भीड़ लगी थी। इनका चिपकू रवैया थोड़ा असहज करता है, चित्त की शांति व भक्ति भाव की लौ को बिखेर देता है। तीर्थ स्थलों पर इनका जमावड़ा एक तरह से भक्ति दर्शन में व्यवधान ही रहता है। ऊपर से जब माथा पसीने से तर-बतर हो और चेहरे पर गंगा-जमुना बह रही हो तो, तिलक छापा लगाने का कोई औचित्य नहीं लगता। लेकिन इनका अपना धंधा जो ठहरा, सो ये अपनी निष्ठा के साथ लगे रहते हैं, भक्तों की भाव-संवेदना का संदोहन करने। लगा कि इनके उचित नियोजन की आवश्यकता है। मंदिर प्रबन्धन इस दिशा में कुछ कर सकता है। राममंदिर में इस तरह का कोई व्यवधान नहीं था।

यहाँ से आगे बढ़ते हैं, अगला पड़ाव कनक भवन था। यह कितनी दूरी पर स्थित है, पूछने पर स्थानीय लोगों का एक ही उत्तर रहता – बस दो सौ मीटर। कितने दो सौ मीटर निकल गए, लेकिन हर जगह पूछने पर दौ सौ मीटर की ही हौंसला फजाई मिलती रही। यहाँ सड़कें काफी चौड़ी की गई हैं और साफ सूथरी भी। एक तरह से तीर्थ कोरिडोर के तहत लगा पर्याप्त कार्य हुआ है। बीच में साइड में रुकने के उचित स्थल भी दिख रहे थे। पूजन सामग्री से लेकर खान-पान की तमाम दुकानों के साथ मार्केट पूरी तरह से सज्जी हुई थीं। हर दुकान में पेढ़ों के ढेर लगे थे। विविध आकार में, गोल से लेकर चपटे व सिलेंडर आकार के, जो काफी मशहूर माने जाते हैं।

इसी क्रम में कनक महल के गेट से दर्शन होते हैं। यह पिछला गेट था, जहाँ से प्रवेश निशिद्ध था, अतः बाहर से ही दर्शन कर आगे बढ़ते हैं। हम गायत्री शक्तिपीठ की खोज में भी थे, जो पता चला कि ठीक इसके पिछली साइड पड़ता है, सो पीछे मूड़कर एक गली से होकर आगे बढ़ते हैं। कनक भवन के दूसरी ओर के गेट के बाहर भोजन प्रसाद की उत्तम व्यवस्था के विज्ञापन लगे थे। अभी तो सेवा बंद थी। 70 रुपए से 120 रुपए में थाली की व्यवस्था दिख रही थी।

निर्माणाधीन, गायत्री शक्तिपीठ अयोध्या

कनक भवन से ठीक आगे किनारे पर गायत्री शक्तिपीठ का प्रवेश द्वार दिखा। इसके व्यवस्थापक बाबा राम केवल यादव से मुलाकात होती है। जिनकी लम्बी-लम्बी शुभ्रवर्णी दाढ़ी और केशों से सजा भव्य व्यक्तित्व विशेष ध्यान आकर्षित कर रहा था। इनके संवाद पर थोड़ी ही देर में अहसास हुआ कि एक गायत्री साधक से संवाद हो रहा है। संवाद के तार कहीं गहरे जुड़ रहे थे। इसी बीच हमारी सेवा में चाय-बिस्कुट आ जाते हैं। पास में ही तीन वरिष्ठ स्वयंसेवक पदाधिकारी अपने आसनों में शोभायमान थे और सभी अपने ऑफिशयल कार्यों में व्यस्त थे।

फिर हम ऊपर कक्ष में आकर थोड़ा विश्राम करते हैं। यहीं व्यवस्थापक महोदय से उनकी व शक्तिपीठ की कहानी का श्रवण करते हैं। जो रोचक ही नहीं रोमाँचक भी थी। हमारे लिए ज्ञानबर्धक भी। स्वयंसेवक माताजी बीच में बेल का शर्वत लेकर आती हैं। संवाद पर बाबाजी एक अद्भुत व्यक्तित्व के व्यक्ति निकले। 1981 से आचार्य़ श्रीरामशर्माजी से इनकी पहली मुलाकात होती है और तभी से मात्र आलू व चना पर निर्वहन कर रहे हैं।

परमपूज्य गुरुदेव द्वारा वर्ष 1981 में यहाँ अयोध्या आगमन हुआ था और उन्हीं के करकमलों द्वारा शक्तिपीठ की नींव पड़ी थी। इस भूमि की कई विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया और वर्तमान गतिविधिय़ों के प्रति हमारी जिज्ञासाओं का समाधान किया। इसे गायत्री तीर्थ शांतिकुंज का ही एक प्रतिरुप कह सकते हैं, जहाँ नाना प्रकार की गतिविधियाँ संचालित होती हैं। नियमित गायत्री साधना, यज्ञ, संस्कार के साथ यहाँ विभिन्न साधना सत्र, स्वावलम्बन, योग, संगीत, प्राकृतिक चिकित्सा, धर्म विज्ञान, आपदा प्रबन्ध, आओ गढ़ें संस्कारवान पीढ़ी जैसे लोकोपयोगी कार्यक्रमों की भी व्यवस्था है।

इनके संचालन हेतु पांच मंजिला भवन तैयार हो रहा है। इसकी छत से अयोध्या नगरी का विहंगम दृश्य देखने लायक था।

सभी तीर्थ स्थल यहाँ से दिख रहे थे। श्रीराममंदिर से लेकर हनुमानगढ़ा और दूर सरयू नदी। जिसका अवलोकन नीचे दिए वीडियो में कर सकते हैं।

शक्तिपीठ परिसर में ही निचले तल पर गायत्री मंदिर, सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा, भटका हुआ देवता और यज्ञशाला स्थापित हैं। बाहर बारिश शुरु हो चुकी थी, लग रहा था जैसे देव अभिसिंचन हमारे ऊपर हो रहा है। बाबा रामकेवलजी से विदाई लेकर हम लोग इस अभिसिंचन का आनन्द लेते हुए हनुमान गढ़ी की ओर बढ़ते हैं। बारिश ओर तेज हो रही थी। सो आज दर्शन की संभावना नहीं थी। मंदिर के बाहर एक दुकान से यहाँ के स्पेशन खुरचन वाले पेढ़े का प्रसाद लेते हैं।

फिर पतली गलियों से बाहर निकलते हुए मुख्य मार्ग पर आते हैं, स्पेशन रिक्शा वाहन में ऑटो स्टेंड पहुँचते हैं। बापिसी में मार्केट का नज़ारा देखने लायक था, शाम के धुंधले अंधेरे में रौशनी की जगमग जैसे उत्सव का अहसास करा रही थी। 


ऑटो स्टैंड पहुंचने पर हम दूसरे ऑटो में बैठकर घनौरा चौक पहुँचते हैं। वहाँ से पैदल चलते हुए बापिस अतिथि गृह में पहुँचते हैं। इस तरह आज के अयोध्या धाम में तीर्थस्थलों के यथासंभव दर्शन का क्रम पूरा होता है। कल अवध विश्वविद्यालय में क्राँफ्रेंस में प्रतिभाग लेना था, जिसका हमें बेसव्री से इंतजार था। (इसे भाग2, लखनऊ से अयोध्या और अवध विश्वविद्यालय कैंपस पढ़ सकते हैं)

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जब आया बुलावा अयोध्या धाम का, भाग-3

दर्शन रामलल्ला के

3 जुलाई 2025 को प्रातः 8 बजे अतिथि गृह से बाहर निकलकर गेट पर ही एक एक कैफिटेरिया में सुबह का नाश्ता करते हैं और थोडा पैदल चल कर बाहर मुख्य मार्ग पर आते हैं, जिसे घनौरा वाइपास कहा जाता है। यहाँ सुदर्शन हॉटल के पास ऑटो में चढ़ते हैं। लगभग आधा घंटा में हम अयोध्या धाम के समीप थे। रास्ते में लगभग एक किमी पहले साज-सज्जा युक्त सड़कों के दृश्य हमें किसी विशेष स्थल में प्रवेश का गहरा अहसास दिला रहे थे। हम पूरे मार्ग का वीडियो कैप्चर कर रहे थे, ऑटो के दाईं ओर से वाइक सवार इशारा करता है कि आगे का दृश्य विशेष है। पुल से राममंदिर के पहले दर्शन होते हैं। पुल से नीचे उतर कर ऑटो सड़क के अंतिम छोर पर हमें उतारता है। सुरक्षा कारण व ट्रैफिक सुविधा के चलते पुलिस इससे आगे नहीं जाने दे रही थी।

अतः लगभग 10-15 मिनट चल कर हम मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुँचते हैं।


अंदर प्रवेश करते ही बहुत बड़े विश्रामकक्ष के दर्शन होते हैं। यहाँ सीलिंग से जैसे हेलीकॉप्टर के बड़े-बड़े पंखे लटके हुए थे। साइड में शीतल जल की व्यवस्था थी। साथ ही स्त्री-पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रसाधन की बेहतरीन सुविधा थी। 15-20 मिनट में बाहर से आए थके-हारे दर्शनार्थी तरोताजा होकर दर्शन के लिए आगे बढ़ रहे थे। मंदिर के बाहर का यह प्रयोग हमें बहुत अच्छा लगा। लगा कि क्या अच्छा होता कि हर मंदिर व तीर्थ स्थल में दर्शन से पूर्व तीर्थयात्रियों की ऐसी स्वागत-विश्राम व्यवस्था हो।

यहाँ से बाहर निकलकर हम आगे बढ़ते हैं। बैरेक के बीच बने मार्ग से, नीचे दरियाँ बिछी थी। कुछ हिस्सा सीमेंट का होने के चलते बहुत तप रहा था। सो हियादत है कि कोमल चर्म बाले तीर्थयात्री गर्मी के मौसम में पतली जुराब अवश्य पहनें, ताकि गर्मी के अनावश्यक ताप से बच सके। हालाँकि आगे दरियाँ बिछी हैं औऱ अंतिम पड़ाव में तो जल की भी व्यवस्था है।


रास्ते में पीपल के विशाल पेड़ को पार कर सुरक्षा गेट से प्रवेश करते हैं। सुरक्षा निरीक्षण के बाद बाहर एक भव्य परिसर में प्रवेश होते हैं, जिसमें भव्य भवन मंदिर का ही प्रतिरुप जैसा दिखता है, जिसके पहली नज़र में राम मंदिर के प्रवेश द्वार होने का भ्रम हुआ। और हम उसी रुप में इसकी फोटो व वीडियो भी लेते रहे।

लेकिन बाद में पता चला की यह तो क्लॉक रुम तथा विश्राम की व्यवस्था है। यहाँ जुत्ते-चप्पल के साथ बेग, बटुआ व मोबाइल पेन सब सामान जमा किया जाता है। फिर इनको ड्राअर में बंद कर ताला लगाया जाता है और चाबी दर्शनार्थी को दी जाती है, बापिसी में इसी के आधार पर उनका सामान बापिस होता है।

अगले कुछ सौ मीटर के बाद हम मंदिर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में जल की उचित व्यवस्था थी, जिसमें पैर धुल जाते हैं और मस्तिष्क पर भी इसका शीतल प्रभाव बहुत राहत देता है। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए परकोटे पर गरुढ़, हनुमानजी व द्वारपाल के दर्शन होते हैं। मुख्य मंदिर भवन के प्रवेश द्वार पर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्ण है, जिनकी सूक्ष्म नक्काशी देखते ही बनती है। यहीं कौने में एक स्थान पर बैठ कर हवा के झौंके का आनन्द लेते हैं और कुछ मिनट बैठकर ध्यान करते हैं।

फिर उचित मनोभूमि के साथ मंदिर में प्रवेश करते हैं। रामलल्ला के चिरप्रतिक्षित दर्शन के हम साक्षी होने जा रहे थे। सामने रामलल्ला की भव्य प्रतिमा सज्जी थी। राह में खम्बों व ऊपर छत पर की गई नक्काशी भी देखते ही बन रही थी। सामने रामल्ला के दर्शन कर दर्शनार्थी भावविभोर हो रहे थे। अपनी भी चिरप्रतिक्षित इच्छा आज पूर्ण हो रही थी। यहाँ के दिव्य परिवेश में स्वयं को डूबा हुआ अनुभव कर रहे थे। बाहर निकलने पर एक कौने में कुछ पल शांत ध्यान में बैठते हैं, हवा के झौंके को अनुभव करते हैं, जैसे की तीर्थ परिसर की दैवीय कृपा इनके रुप में सभी के ऊपर बरस रही हो। हम भी अपने भावों के सागर में गोते लगाते रहे और फिर सुरक्षा कर्मियों की आबाज़ सुनकर जागते हैं और उठकर आगे बढ़ते हैं।

बाहर निकलते हुए रास्ते में ही प्रसाद को पाते हैं। दूसरे रुट से परिक्रमा करते हुए नीचे बाहर निकलते हैं। रास्ते में प्राचीन बरगद के पेड़ में बंदरों के परिवार के खेलते, झूमते व आपस में क्रीड़ा विनोद के दृश्य देख ऐसे लग रहा था कि जैसे रामराज्य में वानर अपने अधिपति के शासन में निश्चिंत, निर्द्वन्द व मस्त-मगन विचरण कर रहे हों। थोड़ा आगे क्लॉक रूम के पीछे बड़े-2 एसी कक्ष पड़ते हैं, जहाँ दर्शन कर बाहर लौट रहे तीर्थयात्री विश्राम कर रहे थे।

हम भी वहाँ कुछ मिनट विश्राम करते हैं और फिर क्लॉक रुम से सामान लेकर फर्श पर बैठ जाते हैं, जहाँ ताजी हवा के ऐसे झौंके आ रहे थे कि अंदर के एसी इसके सामने फेल थे। यहाँ चारों ओर का दृश्य देखने लायक था। क्या बच्चे, क्या बुढ़े, क्या महिलाएं, क्या प्रौढ़ सब फर्श पर लेटकर धन्य अनुभव कर रहे थे। हवा का झौंका प्राकृतिक एसी का काम कर रहा था। ऊपर छत की ओर वानर सेना अपनी उछल-कूद के साथ जैसे उत्सव मना रही थी।

यहाँ के बंदर परिसर में कई स्थानों पर मिले। लेकिन इनकी प्रकृति एकदम उलग दिखी। शांत, सौम्य व स्वयं में मस्त-मग्न। यहाँ आधा घंटा बैठने के बाद बाहर आते हैं। पियाउ की उचित व्यवस्था परिसर में थी। जल पीकर बाहर शार्टकट से बाहर गेट तक आते हैं, जहाँ सीता रसोई में खिचड़ी प्रसाद बंट रहा था। स्थानीय महिलाएं ही इसको परोस रही थी।


इस तरह हमारा राम मंदिर का दर्शन पूरा होता है और कहीं गहरे अंतरात्मा को छू जाता है।

सैंकड़ों वर्षों के वनवास के बाद जिस तरह से रामलल्ला की प्राण प्रतिष्ठा होती है, यह भावुक करने वाला प्रकरण है। हालाँकि अभी मंदिर का निर्माण कार्य चल ही रहा है, लेकिन जितना हो चुका है, वह स्वयं में अभूतपूर्व है, जिसे मानवीय नहीं दैवीय संकल्प का प्रतीक माना जा सकता है। इसे किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष तक सीमित न कर पीढ़ियों के त्याग-बलिदान व राष्ट्र के संम्वेत संकल्प का मूर्त रुप माना जा सकता है। हाँ इसके माध्यम सनातन संस्कृति एवं इसकी आध्यात्मिक विरासत के प्रति संवेदनशील सुपात्र व्यक्ति बने हैं, जो युग परिवर्तन के लिए उदयत महाकाल की चेतना से संवाहक बनते हैं और इस दैवीय कार्य को सम्पन्न किए हैं, जिसके साथ नए युग के सुत्रपात का शंखनाद देखा जा सकता है। कोई भी सनातन धर्म में आस्था रखने वाला व्यक्ति यहाँ पधार कर इसे अनुभव कर सकता है और यहाँ की तीर्थ चेतना का स्पर्श पाकर रुपांतरित हुए बिना नहीं रह सकता

जब आया बुलावा अयोध्या धाम का, भाग-2

 

लखनऊ से अयोध्या और अवध विश्वविद्यालय कैंपस


लखनऊ से अयोध्या तक का आगे का सफर सावरमती एक्सप्रेस से पूरा होता है। ट्रेन रात को 1 बजे थी, सो हमारे पास तीन घंटे स्टेशन पर बिताने की चुनौती थी। जिस स्टेशन में उतरे, उसी के वातानुकूलित (एसी) विश्राम कक्ष में सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पहली मंजिल पर पहुँचते हैं, रजिस्टर में अपना नाम पता व ट्रैन का पीएनआर आदि दर्ज कर विश्राम कक्ष में बैठते हैं। इसी बीच डॉ. दिलीपजी अपनी खोजवीन कर चुके थे। पता चला कि हमारी ट्रेन पास के बड़े या मुख्य स्टेशन के प्लेटफॉर्म से चलेगी और वहाँ रुकने की ओर वेहतर व्यवस्था भी है। सो हम इस भवन से बाहर निकल दूसरे स्टेशन में प्रवेश करते हैं।

विश्राम कक्ष में पहुँचने पर देखते हैं कि यहाँ एसी के साथ सोफा युक्त बैठने की व्यवस्था थी। 20 रुपए प्रति घँटा प्रति व्यक्ति के हिसाब से शुल्क लिया जा रहा था। चाय नाश्ते की सारी सुविधाएं भी यहाँ उपलब्ध थी। मोबाइल चार्जिंग की तो विशेष व्यवस्था थी, कितने सारे प्वाइंट्स सामने दीवार पर टंगे थे। चाय-कॉफी के साथ वाशरुम टॉयलेट की उचित सुविधा थी तथा सबकुछ चकाचक साफ था। बाहर की गर्मी में राहत एक बड़ी बात थी। हालाँकि लेटने की सुविधा नहीं थी, लेकिन भीड़ कम होने पर कमर सीधी कर सकते थे। और कई लोग तो जैसे चादर तान कर खर्राटे भर रहे थे। हालाँकि भीड़ बढ़ने पर उनको जगा दिया जा रहा था

रात को 1 बजे विश्राम गृह से बाहर निकलते हैं। वहाँ रहते कुछ तो सफर की थकान व नींद की कामचलाउ भरपाई हो गई थी, हालांकि नींद हॉवी थी। रात 1.30 बजे रेल चल पड़ती है, एसी ट्रेन में ठंड ठीक-ठाक लग रही थी, सो टोपा निकालकर व चादर तानकर राहत की सांस लेते हैं। अगले दो-अढ़ाई घंटे कैसे नींद में बीते, पता ही नहीं चला। प्रातः 4 बजे अयोध्या कैंट पर रेल खड़ी होती है।

स्टेशन पर उतरते ही तीर्थक्षेत्र अयोध्या धाम को भाव निवेदन करते हैं। स्टेशन से बाहर निकलकर चाय की टपरी पर कुल्हड़ चाय का आनन्द लेते हैं।


सुबह की ठंड में यह एक राहत देने वाला व तरोताजा करने वाला अनुभव था। साथ में फैन के साथ कुछ पेट-पूजा की भी कामचलाउ व्वस्था हो रही थी। इतनी देर में प्रो. अनुराग पहुंच चुके थे, वे अपने वाहन में यूनिवर्सिटी के गैस्ट हाउस तक छोड़ते हैं। मैनेजमेंट स्कूल के एकांतिक परिसर में गैंदा लाल दीक्षित वीआईपी अतिथि गृह बना हुआ है, जो विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय का भी निवास स्थान है। इस एकांत शांत लोकेशन के आसपास मोर के बोलने की आवाज़ें आ रही थी, ऐसा लग रहा था कि जैसे ये प्रातः हमारे आगमन का स्वागत गीत गा रहे हों।

प्रबन्धन स्कूल के इसी परिसर में पर्यटन, खेल, इंजीनियरिंग कालेज भी मौजूद हैं। कैंपस के अंदर ही कई हॉस्टल भी हैं, जो मुख्य मार्ग तक जोड़ते कैपस के अंदर विराजमान लिंक रोड़ के दोनों ओर व्यवस्थित हैं। लिंक मार्ग की चौड़ी सड़क प्राकृतिक सुषमा से भरे परिवेश से होकर गुजरती है और यात्रियों के लिए एक सुखद अहसास दिलाती है। प्रातः-सांय टहलने के लिए भी यह मार्ग हमें आदर्श लगा। अतिथि घर के आगे पता चला कि 500 बीघा और भूमि है, जहाँ अवध विश्वविद्यालय परिसर का विस्तार होना है। अवध विश्वविद्याल का मुख्य कैंपस लगभग 3 किमी दक्षिण की ओर है, जहाँ क्रांफ्रेंस होनी थी।

अतिथि गृह पहुँचकर स्नान के बाद तरोताजा होकर विश्राम करते हैं। रास्ते भर की अधूरी नींद व थकान के चलते, नींद कुछ ऐसे गहरी आती है कि कुछ सुध-बुध नहीं रहती और चित्र-विचित्र स्वप्नों के साथ नींद पूरा होती है। जब आँख खुलती है, तो सुबह के दस बज चुके थे। क्रांफ्रेस कल 4 जुलाई को प्रातः 8-9 बजे से थी। सो आज का दिन शेष था, जो राममंदिर दर्शन व अय़ोध्या धाम के अन्य तीर्थों के तीर्थाटन के लिए सुरक्षित था। (भाग-3 में पठनीय)

अवध विश्वविद्यालय में AEDP पर क्रांफ्रेंस प्रतिभागिता

4 जुलाई को प्रातः तैयार होकर, 8 बजे वाहन से अवध विवि मुख्य कैंपस पहुंचते हैं। विश्वविद्यालय का कैंपस पहली ही नज़र में अपनी भव्य उपस्थिति के साथ चित्त को आल्हादित करता है। काफी पुराने वृक्षों के बीच इसके सुंदर भवनों का संयोजन किसी भी प्रकृति प्रेमी को गहरा सुकून देने के लिए पर्याप्त है।

कैंपस में सजे पांडालों में पंजीयन होता है और फिर लान में सजे दूसरे पांडाल में नाश्ता, यहीं दोपहर का लंच भी रहा। बीच-बीच में जलपान भी चलता रहा। यहाँ पर खान-पान की उमदा व्यवस्था काविले तारीफ लगी।

इस क्रांफ्रेंस में सेंट्रल जोन अर्थात मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड के उच्च शिक्षण संस्थानों के शैक्षणिक प्रतिनिधि आए थे। लगभग 500 प्रतिभागियों एवं विवि के दर्शकों के साथ हॉल खचाखच भरा हुआ था। आयोजन स्वामी विवेकानन्द सभागर में सम्पन्न होता है और संयोग से आज स्वामीजी की पुण्य तिथि (4 जुलाई) भी थी।

ठीक 10 बजे कार्यक्रम शुरु होता है। यूजीसी के पूर्व चेयरमैन एम. जगदीशजी इसकी केंद्रिय भूमिका में थे। यूजीसी के ही ज्वांइंट सचिव अविचल कपूर, अंडर सचिव मीना मेनन भी उपस्थित थे, जिनसे संक्षिप्त मुलाकात का बीच में अवसर मिलता है। दिन भर विशेषज्ञों के सत्र चलते रहे, जिनमें कई विषय विशेषज्ञ एवं कुलपति स्तर के शैक्षणिक अधिकारी थे। प्रश्नोत्तरि का क्रम एम.जगदीशजी ही कुशलतापूर्वक संभालते रहे।

समाप्न समारोह में उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री और शिक्षा मंत्री भी उपस्थित रहे। यूजीसी के सचिव डॉ. मनीष जोशीजी भी इस सत्र में अपने उद्बोधन के साथ मंत्रियों व प्रतिभागियों का स्वागत किया। शेष विशेषज्ञों का जमाबड़ा हर सत्र में प्रतिभागियों को अपने ज्ञान व अनुभवों से प्रकाशित करता रहा। और दर्शकों ने भी पर्याप्त प्रश्न पूछे, जिससे पूरी क्राँफ्रेंस इंटरएक्टिव मोड में रही, जिसे ज्ञान के आदान-प्रदान की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है।

कांफ्रेस का उद्देश्य एईडीपी के अर्थ, प्रयोजन, आवश्यकता व महत्व को समझाना था और स्नातक स्तर पर इसे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना था। जिससे उद्योग से शैक्षणिक संस्थान सीधे जुड़कर छात्र-छात्राओं को रोजगार से अबसर सुनिश्चित करवा सके। एप्रेंटसशिप के दौरान भी इसमें छात्र-छात्राओं के लिए समुचित अनुदान की व्यवस्था है, इस रुप में इसे ओन जॉब ट्रेनिंग (OJT) भी कह सकते हैं। एम जगदीशजी से ब्रेक में व्यक्तिगत संवाद भी संभव हुआ, जिसमें अपनी एईडीपी और एनईपी-2020 से जुड़े कुछ अहं प्रश्नों पर चर्चा हुई।

क्रांफ्रेंस से हम इस आशय के साथ बापिस आए कि अपने विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर एईडीपी पाठ्यक्रमों को लागू करना है। जिस पर कार्य विश्वविद्यालय के नेतृत्व में कार्य चल रहा है और आशानुकूल तीव्रता के साथ आगे बढ़ रहा है। वर्ष 2026 के अकादमिक सत्र से स्नातक स्तर पर ऐसे पाठ्यक्रम के लागू होने की संभावना है।

क्रांफ्रेस समाप्त होने पर अपने गेस्ट हाउस से समान समेटकर अयोध्या धाम स्टेशन पहुँचते हैं।


यहाँ का स्टेशन अयोध्या जंक्शन से एकदम दूसरी दिशा में और राममंदिर के बहुत समीप है। स्टेशन में भी राममंदिर की प्रतिकृति बनी हुई है और अंदर प्रवेश करने पर गिलहरी की मूर्ति ध्यान आकर्षित करती है।

पूरा स्टेशन साफ-सूथरा और एसी सुविधा से लैंस है, जहाँ के बडे-बड़े हाल में यात्री बहुत आराम से विश्राम कर रहे थे। यहीं पर रेल्वे स्टेशन के आहार केंद्र IRTC में रात का भोजन करते हैं। रेट 70, 120 से लेकर 150 रुपए तक के थे। यहाँ अपनी भूख के अनुकूल भोजन लेकर बाहर एक बेंच पर कुछ विश्राम करते हैं। साथ ही मोबाइल चार्ज करते हैं और ट्रेन का समय होने पर लिफ्ट से ऊपर चढ़कर फिर नीचे उतरते हैं औऱ दो नम्बर प्लेटफॉर्म पर अपनी रेल का इंतजार करते है।

ट्रेन रात 8.20 बजे स्टेशन पर आती है, जो तीन घंटे लेट थी। रेल चुनिंदा स्टेशनों से होते हुए हरिद्वार पहुँचती है। रेल हर स्टेशन पर काफी समय रुक कर आगे बढ़ती है और हरिद्वार पहुँचते-पहुँचते छः घंटे लेट होती है। इसमें क्या स्पेशल था, ये समझ नहीं आया। पानी की भी उचित व्यवस्था डिब्बे में नहीं थी, हालाँकि फोन करने पर तत्काल अगले स्टेशन पर समाधान मिला। इसमें सरकार को दोष नहीं दे सकते,  रेल में बैठे कर्मचारियों की लापरवाही इसमें अधिक दिख रही थी।

लेट होने के कारण हम प्रातः छः बजे की बजाए 12 बजे हरिद्वार पहुँचते हैं और 1 बजे तक अपने कैंपस में पदार्पण करते हैं। इस तरह 15 घंटे के लम्बे सफर के साथ हमारी पहली अयोध्या धाम की यात्रा पूरी होती है।


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